छात्रों के लिए प्रेरणास्रोत हैं बेनीपुरी का स्कूली जीवन
रामवृक्ष बेनीपुरी जी की 126वीं जयंती
ब्रह्मानंद ठाकुर
आज रामवृक्ष बेनीपुरी जी की 126वीं जयंती है। 23 दिसम्बर 1899 को मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुरी गांव में एक सामान्य किसान परिवार में उनका जन्म हुआ था। वे समाजवादी राजनेता के साथ-साथ एक महान रचनाकार भी थे। उनका रचना संसार बड़ा व्यापक है। आज के दिन उनको याद करते हुए काफी कुछ लिखा जा सकता था, लेकिन वर्तमान संदर्भ में मुझे बेनीपुरी जी के स्कूली जीवन से जुड़ी यादें महत्वपूर्ण लगी। यह छात्रों के लिए मार्ग दर्शन का काम करेगी। एक तरह से यह छात्रों के नाम उनका संदेश भी है। लिहाजा आज के ठाकुर का कोना का विषय संक्षेप में वही संदेश है। यह 20 अगस्त 1958 को आकाशवाणी पटना से प्रसारित हुआ था। संदेश इस प्रकार है —
‘प्यारे बच्चो,
एक दिन मैं तुम्हारे ही समान बच्चा था। स्कूल में पढ़ता था। काफी नटखट था, खेलता था, कूदता था। जब 4 साल का था, मां मर गई। नौ बर्ष का था, तो पिताजी स्वर्ग सिधारे। फलत: मेरी पढ़ाई देर से शुरू हुई। सोलह साल की उम्र में मिडिल पास कर सका था। क-ख-ग मैंने अपने गांव बेनीपुर में शुरू किया और लोअर प्राइमरी की पढ़ाई अपने ननिहाल बंशीपचडा में पूरी की। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गई, मेरा नटखटपन दूर होता गया। ननिहाल में तुलसीदास की रामायण और विनय-पत्रिका से मेरा जुडाव हुआ। आज मुझमें जो साहित्यिक प्रवृति या योग्यता है, उसका प्रधान कारण तुलसीदास जी हैं। स्कूल मे मेधावी और सदाचारी लड़कों में मेरी गिनती होती थी। वर्ग में सदा प्रथम आता था। शिक्षक और साथी सभी मेरी प्रशंसा करते थे। सिगरेट-बीड़ी, मैं छूता तक नहीं था। बाजार की मिठाई और पान खाने से भी परहेज़ रखता था। कुर्ता-धोती मेरी पोशाक थी। न पैर में जूते, न सिर पर टोपी। स्कूली किताबों से ही मेरा संतोष न था। अन्य पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं मैं खोज कर पढ़ता था। उन दिनों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं बहुत कम थीं, लेकिन जो भी थीं, अच्छी थीं। आज इनकी संख्या बढ़ गई है, तो बहुत सी अंट-संट चीजें भी बाजार में आ गई हैं, जिन्हें पढ़ कर लड़के बनने की बनिस्बत बिगड़ते ही हैं।
मैं एक साधारण किसान परिवार का लड़का था। मिडल पास करने के बाद मुजफ्फरपुर पढ़ने गया। वहां बड़े-बड़े लोगों के लड़के मेरे साथ पढ़ रहे थे। वे अपने धनी होने का धौंस मुझ पर ज़माना चाहते तो कुछ मुझ पर अपनी कृपा लादना चाहते। मैं सदा दोनों से बचने की कोशिश करता। मुझमें बचपन से ही स्वाभिमान था। मैं उनका कोई एहसान लेना नही चाहता था, इसलिए उनके कुटुम्बों से मैं अपनी रक्षा कर सका। वर्ग में प्रथम आने के कारण मेरा स्कूल फीस माफ था। कम खर्च के लिहाज से एक प्राइवेट हास्टल की झोंपड़ी में रहता था। समय पर पैसा नहीं देने के कारण जब भोजन बंद कर दिया जाता, तब चावल भुना कर या पानी में भिगो कर फांकना पड़ता। इतने पर भी पढ़ने की लालसा बनी रही। ज्योंही पैसे आते, पत्र-पत्रिकाएं खरीद लेता था। बच्चों, मेरा स्कूली जीवन बताता है, खूब पढो, मन से पढ़ो। पढ़ाई के साथ चरित्र पर ध्यान रखो। लाख विघ्न-बाधाएं आएं, तो भी सफलता निश्चित है।’
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)