डोनाल्ड ट्रम्प और दुर्योधन

डोनाल्ड ट्रम्प के अंदर से कभी भी राजतंत्र का उदय हो सकता है

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डॉ योगेन्द्र

अमेरिका से मुझे कोई मतलब नहीं है। कौन जीतता है, कौन हारता है, इससे क्या फायदा और क्या हानि है, इसका कोई सही सही आकलन भी मेरे पास नहीं है, लेकिन मैं डोनाल्ड ट्रंप को हारते हुए देखना चाहता था। उसकी बोली इंसान की तरह नहीं लगती। अनाप-शनाप बोलने की उसे बीमारी है। ऐसे लोगों को पकड़ना कठिन होता है और यह पता करना भी कि उसकी कौन सी बात सही है और कौन सी गलत? पिछले चुनाव में हार के बाद भी उसने व्हाइट हाउस छोड़ने में देर की थी और चुनाव प्रचार के दौरान उसने कहा था कि व्हाइट हाउस छोड़ना उसकी भूल थी। ऐसे बयान बताते हैं कि इस व्यक्ति के अंदर लोकतंत्र को लेकर बहुत कम सम्मान का भाव है। इसके अंदर से कभी भी राजतंत्र का उदय हो सकता है।‌ अमेरिकी लोग तो पढ़े लिखे होते हैं। तब भी उन्होंने अभिमानी दुर्योधन जैसे डोनाल्ड ट्रम्प को चुना तो यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। भारत में भी इस प्रवृत्ति को समर्थन मिल रहा है। वैसे लोग ज्यादा पसंद आ रहे हैं जो ‘जस्टिस आन द स्पॉट‘ करने की बात करते हैं। बहुत सारी फिल्मों के हीरो ऐसा करते नजर आते हैं तो पब्लिक जम कर तालियां बजाती है। ऐसा हो क्यों रहा है? इसकी वजह तो होगी ही। एक बड़ी वजह यह लगती है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका में जो भी काम कर रहे हैं, ज्यादातर लोग अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करते। नतीजा होता है कि जो पीड़ित पक्ष है, वह और अधिक पीड़ित होता है और जो अपराधी है, वह मौज में रहता है। पब्लिक सोचने लगती है कि जब समय पर न्याय नहीं मिलता तो जस्टिस आन द स्पॉट ही सही है। चाहे इसमें कानून और संविधान की उपेक्षा हो तो हो।

हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो धीरे-धीरे कठोर होती जा रही है। ऐसे लोगों की संख्या बहुत बढ़ रही है जो दोमुंहे होते हैं। लबर-लबर बोलना और बोलने में सत्य को छिपाते या बरगलाते चलना उनके महान गुण हैं। वैसे लोगों से व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन में परहेज करना चाहिए। वैसे लोगों की भारी कमी हो रही है जो कम बोलें और संतुलित बोलें।‌ डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग असंतुलन के शिकार हैं। वे कोई ऐसे निर्णय भी ले सकते हैं जिनके नतीजे का उन्हें अंदाज़ा न हो। जैसे महाभारत में हुआ या द्वितीय विश्व युद्ध में हुआ। महाभारत में युद्ध की संभावना बन रही है। दुर्योधन अड़ा हुआ है। लाख भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कृष्ण, विदुर चाहते हैं कि युद्ध न हो, लेकिन युद्ध होता है। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई ग्रंथ महाभारत से बड़ा हो, जिसमें युद्ध के आसपास मंडराने वाले विचारों की व्याख्या और आकलन हो। द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर का दुस्वप्न हाबी रहा। पूरी दुनिया पर राज करने का ख्वाब उसे डंक मारता रहा। यहूदियों को जिस तरह से मारा पीटा, वह क्या कम बड़ी नृशंसता थी? लेकिन आदमी इतिहास पढ़ता भले है, सीखता कम है। एक न एक दिन सुयोधन दुर्योधन हो जाता है और बहुतों के लिए दुर्योधन नायक बन जाता है। तमाम असहमतियों के बाद भी दुर्योधन के पक्ष में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण का युद्ध करना क्या कम बड़ी सीख है? कर्ण की बात कुछ समझ में आती है। उसने अपनी निष्ठा को दोस्ती पर कुर्बान कर दिया था, लेकिन भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य? क्या हस्तिनापुर के पैसे पर पल रहे थे, इसलिए वे विद्रोह नहीं कर सके? हस्तिनापुर से ही उनका जुड़ाव था और उनकी रक्षा करना चाहते थे तो पांडव एक विकल्प था या फिर वे सत्य के पक्ष में खड़े हो जाते। ना इधर, ना उधर। लेकिन वह भी हो नहीं सका। आज फिर वही वक्त है। हमें भीष्म नहीं चाहिए, न द्रोणाचार्य। हम कम से कम विदुर के रास्ते चलें, वरना एक और महाभारत तय है।

 

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डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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