खड़ी बोली के आदि शिल्पी बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री
खड़ी बोली के पद्यों का संकलन और मुद्रण अयोध्या प्रसाद खत्री जी ने कराया
ब्रह्मानंद ठाकुर
बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री के पूर्वज उत्तरप्रदेश के बलिया जिलान्तर्गत सिकंदरपुर के निवासी थे। उनका जन्म 1857 में हुआ था। सन् 57 की अंग्रेज विरोधी आंदोलन की विफलता के बाद जब अंग्रेजी हुकूमत ने अपना दमन चक्र चलाना शुरू किया तो अयोध्या प्रसाद खत्री के पिता बाबू जगजीवन राम खत्री अपने तीन पुत्रों के साथ मुजफ्फरपुर आ गये। यहां जीविका के लिए किताब की एक दुकान खोली। पिता के निधन के बाद उनको यह दुकान संभालनी पड़ी। इसके बाद ये स्कूल शिक्षक बने और फिर कलक्टर के पेशकार के रूप में नौकरी की।1905 तक अयोध्या प्रसाद खत्री पेशकार पद पर बने रहे। हिंदी साहित्य में यह काल (1850-1900) भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। जितनी ईमानदारी और निष्ठा से उन्होंने सरकारी नौकरी की, उसी निष्ठा और लगन के साथ वे मृत्यु पर्यन्त हिंदी की सेवा में लगे रहे। उस युग में ब्रजभाषा में कविता लिखने की परम्परा थी और रचनाकारों ने यह खुला ऐलान कर दिया था कि खड़ी बोली में पद्य की रचना हो ही नहीं सकती। अयोध्या प्रसाद खत्री ने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया।
उन्होंने खड़ी बोली के पद्यों का संकलन और मुद्रण अपने खर्च से कराया और उनका मुफ्त वितरण किया। वे कवियों को खड़ी बोली में पद्य रचना करने को न केवल प्रोत्साहित करते बल्कि इसके लिए आर्थिक सहायता भी दिया करते थे। रामचरित मानस के प्रत्येक दोहे और चौपाई का खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए एक रुपये प्रति दोहे -चौपाई की दर से अपने पास से वे पुरस्कार दिया करते थे। उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि जो पंडित जी अपने यजमान के यहां खड़ी बोली में भगवान सत्यनारायण की कथा का वाचन करेंगे उनको प्रति कथा वाचन दस रुपये वे अपने पास से देंगे। इसके लिए कथा वाचक को अपने यजमान से खड़ी बोली में कथा वाचन का प्रमाणपत्र लाना होता था। तब दस रुपये की काफी कीमत हुआ करती थी। उन्होंने कर्मकांड के अनेक पुस्तकों का खड़ी बोली में अनुवाद करा कर उसका मुफ्त वितरण भी किया। वे दुकानों एवं प्रतिष्ठानों के बाहर लगे साईन बोर्ड पर अशुद्धियां बिल्कुल बर्दास्त नहीं करते थे। अपने आवास से कलेक्ट्रेट जाते हुए जहां कहीं साईन बोर्ड पर उन्हें अशुद्धियां दिखाई देती, वहां रुक कर वे दुकानदार को उसकी बाबत बताते। कागज पर अपने हाथों से शुद्ध-शब्द लिख कर दुकानदार से इसे फिर से लिखवाने को कहते। कलक्टर आफिस में पेशकार होने के नाते दुकानदारों को इनके आदेश का पालन करना पड़ता था। यदि कोई दुकानदार उनके आदेश का पालन नहीं करता तो दूसरे दिन वे खुद दुकानदार से इजाजत लेकर साईन बोर्ड उतरवाकर अपने हाथ से साईन बोर्ड की अशुद्ध लिखावट को शुद्ध करते। ऐसा करने के लिए वे अपने साथ एक आदमी रखते थे जिसके हाथ में ब्रश और पेंट का डिब्बा दोनों रहता था। 1870 में पहली बार हिंदी का प्रवेश स्कूली शिक्षा में हुआ लेकिन हिंदी में पुस्तकों की काफी कमी थी। इससे पूर्व कायथि लिपि में पुस्तकें छापी जाती थीं। खत्री जी ने इसका विरोध करते हुए बंगाल के लाट साहब को एक अनुरोध पत्र भेजा। खड़ी बोली का यह अनन्य सेवक मात्र 48 बर्षों तक जीवित रहा। इस अवधि में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन और सारी कमाई हिंदी की सेवा में अर्पित कर दिया।
(लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)