डॉ योगेन्द्र
यूक्रेन में सर्दियों का मौसम आने वाला है। यों सर्दी भारत में भी उतर रही है। लोग स्वेटर और जैकेट का इस्तेमाल करने लगे हैं, लेकिन यूक्रेन की ठंड हमारी जैसी नहीं होती। वह एक डिग्री से लेकर माइनस में भी जाती है। रूस के पुतिन यूक्रेन को लेकर हमलावर हैं। कल उसने दो सौ से ज़्यादा मिसाइलें यूक्रेन पर दागी। इससे उसके पावर ग्रिड बर्बाद हो गये और तीस लाख लोग अंधेरे में दुबके हैं। उनके पास बचने के लिए बंकर ही सहारा है। 1991 में रूस से अलग हुआ था यूक्रेन। 2014 में रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप पर क़ब्ज़ा कर लिया, तबसे दोनों देश एक-दूसरे के आमने-सामने हैं। जब 24 फ़रवरी 22 को जब पुतिन ने यूक्रेन पर पुनः हमला बोला तो लगा था कि यूक्रेन जैसा छोटा देश टिक नहीं पायेगा और जल्द ही रूस के सामने नतमस्तक हो जायेगा, मगर यूक्रेन न केवल टिका, बल्कि उसने रूस के कुर्स्क इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया है। यों दोनों देशों की लड़ाई में दस हज़ार सैनिक मारे गए हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक़ ग्यारह हज़ार यूक्रेनी नागरिक मारे गये हैं। इज़राइल और फ़िलिस्तीन का युद्ध भी जारी है। तनातनी दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया में भी है। उत्तर कोरिया के किंम ज़ोन-उन का मन भी बौखता रहता है। विश्व की विश्व पंचायत कुछ नहीं कर सकती। वह महज़ ख़ानापूर्ति करती रहती है या फिर धनपति देशों के पाँव सहलाती रहती है। धनपति देश का युद्ध में पौ बारह है। वह अपने हथियारों और फाइटर प्लेन बेच कर अपनी अर्थव्यवस्था ठीक करता रहता है।
मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि देश के अंदर मणिपुर में मैतई और कुकी के बीच जो अनवरत लड़ाई है, हिंसा रक्तपात और औरतों के साथ भयानक दुष्कर्म हैं, इन्हें शांत करने के लिए सरकार या फिर नागरिक पहल क्यों नहीं हुई? जैसे रूस और यूक्रेन या फिर इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच शांति स्थापित करने के लिए वैश्विक पहल नहीं है, वैसे ही देश के अंदर है। शायद समाज में यांत्रिक बुद्धि बढ़ी है, लेकिन संवेदनात्मक बुद्धि घटी है। वरना कोई कारण नहीं है कि लोग पहल नहीं करते। सरकारें चाहे जिसकी भी हो, नागरिक सुरक्षा तो होनी चाहिए। जो भी सरकार चुनी जा रही है, उसमें नागरिकों के मत तो हैं ही। लोकतंत्र में सरकार जहॉं फेल होने लगती है, वहाँ नागरिकों का दायित्व बढ़ जाता है। देश को सिर्फ़ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ सकते। युद्ध में जनता मरती है, सरकार नहीं। सरकार ग़ज़ब चीज होती है। वह बनते ही शर्म खो देती है। उसका ह्रदय ख़ाली हो जाता है और वह कंक्रीट से भरने लगता है। सरकार जनता के लिए कम कुर्सी के लिए ज़्यादा जीती है, इसलिए वह ज़्यादा ख़तरा नहीं उठाती। वह जानती है कि कुछ जनता अगर मर खप भी जाये तो कोई बात नहीं। जनता फिर आ जायेगी, लेकिन उनकी सरकार नही। इसलिए वह जिस भी तरह हो बने रहना चाहती है। नागरिक यह ख़तरा उठा सकते हैं। मणिपुर पर सरकार एर्ल्ट मोड में आये न आये, नागरिक को तो एर्ल्ट होना चाहिए। पहले युवा मार्च करते थे। देश पैदल नापते थे। वे कश्मीर गये, कभी मणिपुर भी गये थे। आज मार्च की बहुत ज़रूरत है। कम से कम मणिपुर के वासियों को लगे, सरकार ज़िंदा नहीं है तो देश के नागरिक तो ज़िंदा हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)