ब्रह्मानंद ठाकुर
अपने देश में प्रायः हर साल चुनाव का मौसम आता है। विधानसभा और लोक सभा का चुनाव तो वैसे हर 5 साल पर कराए जाते हैं। ग्राम पंचायत और पैक्स के चुनाव भी कराए जाते हैं। इस बार बिहार में यह मौसम पैक्स चुनाव का है। वैसे किसानों के लिए यह रबी की खेती का मौसम भी है। किसान खाद-बीज के लिए एड़ी-चोटी का पसीना बहा रहे हैं। कीमतें आसमान छू रहीं हैं। ऐसे ही मौसम में आज से चरणवार 6422 पैक्स का चुनाव शुरू हो रहा है। किसान खेत में खाद-बीज डाल रहे हैं। पैक्स चुनाव में अध्यक्ष के प्रत्याशी किसानों से अपने-अपने पक्ष में उनका मत मतपेटी में डलवाने का जुगत भिड़ा रहे हैं। ऐसा करते हुए इस गुलाबी ठंड में भी उनके माथे पर पसीना चुहचुहा रहा है। इस चुनाव में वोट का सवाल उनके आर्थिक भविष्य से जुड़ा है, किसानों की खुशहाली से नहीं। गुलाबी ठंड, चुनावी मौसम, जरा सम्भल कर ! पैक्स एक सहकारी संस्था है। इसका काम किसानों को उचित मूल्य पर उन्नत खाद बीज, उर्वरक, कृषि ऋण सहित खेती से सम्बंधित अन्य सुविधाएं उपलब्ध करना है। यह बात दीगर है कि अधिकांश पैक्स को अपने इस दायित्व से कोई वास्ता ही नहीं होता। किसान खेती सम्बन्धी अपनी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर है। पैक्स को किसानों से उनकी उपज निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की भी जिम्मेवारी सरकार ने दी हुई है। इसलिए पैक्स का सीधा सम्बंध किसानो से है। पैक्स इसमें भी अपने फायदे का उपाय ढूंढ ही लेता है। पैक्स किसानों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का कितना निर्वहन कर रहा है, यह शोध का विषय है। फिर भी पैक्स चुनाव होते हैं। अध्यक्ष और कार्यकारिणी समिति के सदस्य निर्वाचित किए जाते हैं। इनके लिए चुनाव जीतना लाभ का धंधा है। अनुभव बताता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाताओं की चिरौरी कर, उन्हे दिवास्वप्न दिखा कर, ईमानदारी से उनकी सेवा करने का वादा कर चुनाव जीतने वाले प्रतिनिधि फिर अगले चुनाव तक अपना ही उल्लू सीधा करने में जुट जाते हैं। जनता खुद को ठगा महसूस करने लगती है। पंचायत चुनाव से लेकर संसद और विधानसभाओं के चुनाव की यही स्थिति है।
जब-जब चुनाव का मौसम आता है, सभी नेता गांव-गांव घूम कर जनता के लिए घड़याली आंसू बहाते हैं। नये-नये हथकंडे अपना कर जनता से वोटों की भीख मांगते हैं। जनता बेचारी करें भी तो क्या करें, फिर इनके झांसे में आ ही जाती है। जनता में सही राजनीतिक समझ न रहने के कारण ही ऐसा हो रहा है। इससे छुटकारे के लिए जनता को सही राजनीतिक समझ हासिल करनी होगी। अपने दोस्त और दुश्मन की पहचान करनी होगी। उन्हें समझना होगा कि कौन-सी राजनीतिक पार्टी शोषक वर्ग की हितैषी है और कौन-सी पार्टी मेहनतकशों की बेहतरी के लिए संघर्ष कर रही है। हमारा समाज वर्ग विभाजित समाज है। इसलिए राजनीति भी वर्गीय दृष्टिकोण से निरपेक्ष नहीं है। वर्गीय दृष्टिकोण अपना कर ही हम अपने वर्ग दुश्मन की पहचान कर सकते हैं अन्यथा शोषित-पीड़ित जनता चुनाव में जाने-अनजाने अपने ही वर्ग का अहित करती रहेगी। यह वक्त है सही राजनीतिक दृष्टिकोण अपना कर मतदान करने का।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)