व्यावसायीकरण से शिक्षक-छात्र सम्बंध यांत्रिक हो गये
शिक्षा के व्यावसायीकरण का परिणाम
ब्रह्मानंद ठाकुर
मुझे याद है। देश को आजाद हुए 13 साल हुए थे, मै अपने गांव के बेसिक स्कूल में तीसरी कक्षा का विद्यार्थी था। जीवनेश्वर झा जी हमारे वर्ग शिक्षक थे। अन्य शिक्षकों के साथ वे भी विद्यालय में ही रहते थे। छात्रों से उनका स्नेह पितृ वत था। सिर्फ वे ही नहीं, विद्यालय के अन्य शिक्षक भी छात्रों से खूब स्नेह रखते थे। छात्र भी उनकी सेवा और आज्ञापालन में सदैव तत्पर। ग्रामीणों के साथ भी शिक्षकों का बड़ा मधुर व्यवहार था।
जीवनेश्वर झा जी का तबादला हो गया। हम दो छात्र उनके सामान की मोटरी (तब आज की तरह बैग और सूटकेस का प्रचलन नहीं था), जिसमें कुछ कपड़े, बिछावन, थाली-लोटा और कटोरा था, माथे पर लेकर कुछ दूर तक उनको पहुंचाने गये थे। पहुंचा कर लौटते हुए मैं फूट-फूट कर रोया था। उन्होंने भी भर गले से मेरी पीठ सहलाते हुए कहा था, जाओ, खूब मन लगा कर पढ़ना। मैं लौट आया। फिर कभी उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई। आज सोचता हूं, कितने महान थे हमारे शिक्षक! तब शिक्षण एक मिशन था। शिक्षक होना गौरव की बात थी। मर्यादा बोध और आत्मसम्मान था।
शिक्षण का कार्य आज मिशन की जगह प्रोफेशन हो गया। शिक्षक-छात्र सम्बंध भी यांत्रिक हो गये। आत्मीयता नहीं, स्नेह-ममता नहीं, अभिभावकों के प्रति भावनात्मक लगाव नहीं। मैं इसके लिए शिक्षकों को कतई जिम्मेवार नहीं मानता हूं। जिम्मेवार वह सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था है जो अपने को टिकाए रखने के लिए हर गर्हित हथकंडे अपना रही है। आज शिक्षा को बिकाऊ माल बनाने का काम इसी व्यवस्था ने किया है। स्मृतियों में इतिहास के पन्ने पलटता हूं। कभी शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण और छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना था। शिक्षक का जीवन, विचार, ज्ञान साधना के प्रति उनका समर्पण, सामाजिक दायित्व बोध और छात्रों में उन्नत भावना पैदा करने के लिए समर्पित था। उस दौर में बड़े-बड़े विद्वानो ने मोटी तनख्वाह और सुख-सुविधा को त्याग कर शिक्षक का पेशा अख्तियार किया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बालगंगाधर तिलक, ज्योति बा फुले, लाला लाजपत राय, मदन मोहन मालवीय, जैसे ख्याति प्राप्त शिक्षक इसी कोटि के थे। स्कूली जीवन में सुभाषचंद्र बोस अपने शिक्षक बेनी माधव दास से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल ली। आज इस व्यवस्था ने शिक्षा को एक उत्पाद, शिक्षक को फैसिलिएटर और छात्रों को एक उपभोक्ता बना दिया है। इससे शिक्षा का मूल उद्देश्य तो गायब हुआ ही, शिक्षकों की गरिमा को भी भयंकर आघात पहुंचा है। यह शिक्षा के व्यावसायीकरण का परिणाम है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग को इस समस्या से मुक्ति का उपाय तलाशना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)