ब्रह्मानंद ठाकुर
जी हां, बात थोड़ी कड़बी मगर सच्ची है। कुछ आपबीती कुछ जग बीती। आज हम जिस सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था में जी रहे हैं, उसमें चतुर्दिक कृत्रिमता व्याप्त है। मौलिकता का कहीं नाम निशान नहीं। सर्वत्र दोहरे चरित्र वालों की भरमार है। मुंह में राम, बगल में छूरी वाली स्थिति। संस्कृत में ऐसे ही लोगों के लिए बिष कुम्भम्, पयोमुखम् कहा गया है। ‘कर भला तो हो भला’ का जमाना कब बीत गया, पता ही नहीं चला। अब उसकी जगह ‘आप भला तो जग भला’ का जमाना आ गया है। सिंथेटिक समाज सेवा भी इसी जमाने की देन है। पहले चर्चा सिंथेटिक शब्द की। शब्दकोश में इसका अर्थ कृत्रिम या बनावटी लिखा हुआ है। सिंथेटिक उत्पाद प्राकृतिक नहीं होते। यह एक तरह से गैर नवीकरणीय संसाधनों जैसे कोयला, तेल, गैस आदि से मानव निर्मित फाइवर है। इससे कपड़े एवं अन्य पदार्थ बनाए जाते हैं। सिंथेटिक कपड़े टिकाऊ होते हैं। इनमें नमी सोखने की क्षमता होती है, साथ ही यह त्वचा सम्बन्धी बीमारियों और एलर्जी का कारण भी बनता है। बहरहाल, सिंथेटिक का इतना परिचय देने के बाद मैं अब अपने कथ्य पर आता हूं। अभी का दौर ऐसे ही सिंथेटिक सेवा का दौर है। हर गांव, पंचायत और प्रखंडों में ऐसे अनेक समाज सेवक मिल जाएंगे जो जरूरतमंदों की समस्याओं के समाधान का धंधा कर रहे हैं। चूंकि इनका जुड़ाव विभिन्न राजनीतिक दलों से रहता है इसलिए इनका समाज सेवा का व्यवसाय सदैव फलता -फूलता रहता है। खास कर सत्ताधारी राजनीतिक दल से जुडे छुटभैये कार्यकर्ता की तो मत पूछिए। थाना, ब्लॉक, अंचल कार्यालयों में ऐसे सिंथेटिक समाजसेवक खड़े हो जाते हैं, जरूरतमंदों की भीड़ जुट जाती है। किसी को अपने मुकदमे की पैरवी करानी हो, जाती -आवासीय प्रमाणपत्र लेना हो, राशनकार्ड में नाम जुड़वाना हो, जमीन का दाखिल -खारिज या परिमार्जन कराना हो, आवास योजना का लाभ लेना हो, ऐसे तमाम कार्यों में सिंथेटिक समाजसेवकों की अहम भूमिका होती है। यह बात अलग है कि इसके लिए जरूरतमंदों को जो राशि खर्च करनी पड़ती है उसमें इन समाजसेवकों का भी कमीशन बंधा रहता है। जरूरतमंद भी खुश, समाजसेवियों का भी बल्ले-बल्ले। जो नेता जितना प्रभावशाली है, उसके कार्यकर्ताओं की कार्यालय के बाबुओं में उतनी ही पूछ है। क्योंकि ऐसो के सहारे ही उनका भी भविष्य निर्भर रहता है। इस प्रभाव से सिंथेटिक समाजसेवक अपनो का काम बड़ी सुगमता से करा लेते हैं। इससे समाज में उनकी साख बढ़ती है। देखा जाए तो इस बेरोजगारी के जमाने में सिंथेटिक समाजसेवा का व्यवसाय आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से बड़ा ही लाभकारी सिद्ध हो रहा है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)