उनींदे- अनठाये दिनों के लिए कुछ शब्द

सत्ता में पहुंचते ही, सत्ता के बन कर रह गये

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डॉ योगेन्द्र

मैं भागलपुर 1974 में आया था। टी एन बी कालेज के यूजीसी छात्रावास में लड़ाई और मारपीट कर नाथनगर के एक लौज में रहता है। बहुत उनींदे और अनठाये दिन थे। न पढ़ने में मन लगता था, न कालेज जाने में। लौज के ठीक बगल में जवाहर टाकिज था। जैसे ही साढ़े पांच बजता। मैं टाकिज के कैंपस में होता। लुंगी और शर्ट में। लफंगों की भीड़ में एक मैं भी होता। उन्हीं दिनों बहुत सी फिल्में देखीं।’ गाइड ‘ फिल्म 1965 में बनी थी। भटकती हुई जब भी सिनेमा हॉल में लगती। मैं जरूर देखता। दस साल बाद यानी 1975 में जब ‘शोले’ फिल्म आयी, तो मैंने कम से कम उस फिल्म को दस बार जरूर देखा। उस दौर में छह सिनेमा हॉल थे- शारदा, महादेव, शंकर, अजंता, जवाहर और पिक्चर पैलेस। इनमें से अब कोई नहीं बचे। सभी काल की गाल में समा गए। उन दिनों नाथनगर में चांद मिश्रा की बहुत चर्चा थी और सड़क पर ट्रैफिक के नाम पर सिर्फ टमटम और रिक्शा हुआ करता था। भागलपुर से नाथनगर पुराना मुहल्ला है। शायद इसका नाम आठवीं सदी में हुए नाथों के आधार पर है। इस मुहल्ले में ही बिहुला-विषहरी का मेला लगता है और जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है।

खैर, मेरे दिन यों ही खर्च हो रहे थे। भटके हुए लाचार दिन।‌ उन्हीं दिनों भागलपुर की सड़कों पर अलग से हंगामे थे। छात्र व्यवस्था बदलने के लिए उताहुल थे। उनका मकसद था – सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह दुनिया बदलनी चाहिए। कालेज बंद होते, कभी खुलते। नारे तो लग ही रहे थे। साथ ही वे शहीद तक होने को तत्पर थे। अद्भुत दिन थे। वक्त गुजरा। सरकारें बदलीं। जो छात्र सड़क पर थे। वे विधानसभा और संसद में गये। फिर वही भ्रष्टाचार, वही टूटी मरी शिक्षा, पूंजीपतियों का वर्चस्व। सत्ता में पहुंचते ही, सत्ता के बन कर रह गये। मन में सवाल आता है कि क्या आंदोलन का यही हश्र होता है? जो सत्ता में पहुंच नहीं सके, उन्हें पेंशन मिलती है। इस आंदोलन से एक और धारा फूटी, जिसने पेंशन भी नहीं ली, न सत्ता में गये। वे समाज में सक्रिय हुए। बोधगया में भूमि मुक्ति आन्दोलन चलाया तो कहलगांव में गंगा मुक्ति। पर यह लड़ाई व्यवस्था से टकराती थी, लेकिन उसे बदलने में सक्षम नहीं हुई। अब भी जहां तहां टिमटिमाती हुई रोशनी है। उसके कुछ लोग न थके हैं, न हारे हैं।

पर अपने देश-समाज को देखिए। कोई भी धार्मिक समारोह हो, भीड़ उमड़ आती है।‌ लोग अपने ही कारण से भयभीत हैं। धार्मिक समारोहों की भीड़ बताती है कि सब कुछ ठीक नहीं है। लोगों को खुद पर भरोसा नहीं है। वे अनिश्चित भविष्य से डरे हुए हैं। कल क्या होगा, कहा नहीं जा सकता है। जब मेरा मन पढ़ने से उचट गया था, तब भी मैं अनिश्चय में नहीं था। नहीं पढूंगा तो खेती करूंगा। अभी लगता है कि नौकरी नहीं होगी तो कैसे जिऊंगा? माता-पिता, संतानें, परिवार- सब परेशान और भयभीत हैं। इतनी असुरक्षा है कि छात्र जीना पसंद नहीं करते, वे आत्महत्या कर लेते हैं। हर दिन पचास छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। यानी एक क्लास रूम अपनी जान गंवा बैठता है। यह कोई सामान्य घटना नहीं है, लेकिन सत्ता और समाज को इसका अहसास भी नहीं है। अनेक बार ऐसा होता है कि समय पकड़ में नहीं आता। हम उसी में बहने लगते हैं। जब तक अहसास होता है। हम चुक चुके होते हैं। कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’ नामक उपन्यास को पढ़ना चाहिए। पूरी दुनिया विखंडन के दौर में है। उपन्यासकार ने इस विखंडन की वजहों की जबर्दस्त तलाश की है।

 

A few words for the lonely days

 लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए SwarajKhabar उत्तरदायी नहीं है।)

डॉ योगेन्द्र

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