डॉ योगेन्द्र
और दिन की तरह दो अक्तूबर भी बीत गया। सीधा-सादा दिन। कहीं महात्मा गाँधी की प्रतिमा पर फूल मालाएँ चढ़ीं, कहीं लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा पर। फ़ेसबुक और सोशल मीडिया में तो दोनों मौजूद हैं ही। व्यवहार में न तो दोनों की सादगी बची है, न विचार बचे हैं। लद्दाख से पैदल चल कर आ रहे थे सोनम वांगचुक। वे राजघाट समाधि पर फूल चढ़ाते और प्रार्थना करते कि, लद्दाख की रक्षा हो और उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। उन्हें दिल्ली बार्डर पर गिरफ़्तार कर लिया गया। वे न हत्यारे हैं, न हत्या के मक़सद से आ रहे थे। न उनके साथ भीड़ है, न हो हंगामा है। फिर सरकार क्यों डर रही है और क्या सरकार को संविधान इजाज़त देता है कि शांतिपूर्ण ढंग से जो सविनय अवज्ञा कर रहा है, उसे गिरफ़्तार कर ले। पावर मिल जाने से आँखें नहीं मिल जाती। सत्ता की आँखें जीवित रहे, इसके लिए सम्मान और संविधान के प्रति सदाशयता ज़रूरी है। दूसरी तरफ़ कोई राम रहीम है। यौन शोषण और हत्या के केस में सजायाफ्ता है, उसे ज़मानत दी जाती है। महात्मा गाँधी के जन्म दिन के पूर्व शांति के सिपाही की गिरफ़्तारी और यौन शोषक और हत्यारे को ज़मानत आख़िर क्या बताता है?
खैर, महात्मा गाँधी की बात छोड़िए ! जब नेहरू ने उनका रास्ता छोड़ दिया और संविधान निर्माता ने गाँधी की अवहेलना की, तो जो उनके विरोधी रहे, उनसे क्या अपेक्षा और क्यों अपेक्षा? और हम सब भी क्या कर रहे हैं, फूल चढ़ाने और श्रद्धांजलि देने के सिवा? फ़ेसबुक पर तो जैसे बाढ़ सी आ जाती है। 1 अक्टूबर को पत्नी और पोती के साथ राँची के मोराबादी मैदान गया। वहाँ एक्सपो मेला लगा था। तरह-तरह के क़ीमती सामान बिक रहे थे। उसमें प्रवेश करने का शुल्क बीस रूपया था। अंदर पहुँचा तो अपार ग्राहक। साथ में पोती थी, तो उसने नेमनचूस का एक पैकेट देखा। हरे, नारंगी, लाल रंग के नेमनचूस। पत्नी ने दाम पूछा तो उसने कहा -150 रूपये। मैं तो भौंचक था। मुश्किल से पंद्रह बीस रूपये की वस्तु होगी। पत्नी ने इंकार किया तो उसने ऑफ़र दिया – सौ में ले लीजिए। तब तक पोती का मन उचट गया था। उसने भी लेने से इंकार किया। मेला परिसर में ही बच्चों और बड़ों के मनोरंजन के लिए ट्रेन, हेलिकॉप्टर और अन्य यंत्र लगे थे। हरेक में चढ़ने के लिए पचास रुपए। पोती ट्रेन और हेलिकॉप्टर पर चढ़ कर खुश हुई। खाने का सामान भी रद्दी क़िस्म का था। मुझे दही बाड़ा पसंद आता है। पत्नी ने पापड़ी चाट ली और मैंने दही बाड़ा। दोनों का स्वाद एक, दोनों बासी क़िस्म का और दाम साठ रूपये।
दरअसल गाँधी के इस देश में एक वर्ग के पास पैसा बहुत आया है। मेला उसी के लिए लगता है। मैंने एक भी स्थानीय जनजाति के लोगों को नहीं देखा। वे अगर होंगे भी, तो वे भी संपन्न वर्ग में शामिल हो गये हैं। खूब खाओ, खूब खरीदो- आधुनिक बाज़ार को टिकाये रखने के लिए ज़रूरी है। नब्बे के दशक से पूरी दुनिया में वस्तुओं का भूमण्डलीकरण हो गया है। आप अपने देश में बने रहें। आपके पास अन्य प्रबुद्ध देशों के सामान सज धज कर पहुँच जायेंगे और आप अपनी कमाई को लुटा दें, क्योंकि वे वस्तुएँ शान के प्रतीक हैं। मेले के बग़ल में ही गाँधी वाटिका है। उसमें गाँधी की भव्य प्रतिमा लगी है। उसके सामने हज़ारों दीप जल रहे थे। एक्सपो मेले और गाँधी जी – दोनों दो ध्रुव हैं, लेकिन सत्ता ने दोनों को साध लिया है। सोनम वांगचुक जेल में रहेंगे और राम रहीम मेले में बिकेंगे ।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)