बेनीपुरी जी ने बैलगाड़ी से किया था अपना चुनाव प्रचार
बेनीपुरी जी ने खुद के लिए बैलगाड़ी और कार्यकर्ताओं के लिए साईकिल का किया था इंतजाम
ब्रह्मानंद ठाकुर
प्रखर समाजवादी, लेखक, पत्रकार रामवृक्ष बेनीपुरी सोशलिस्ट पार्टी उम्मीदवार के रूप में अपने गृह क्षेत्र कटरा विधानसभा सीट से 1952 और 1957 में दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ें थे। 1952 का चुनाव वे हार गये जबकि 1957 में वे कांग्रेस प्रत्याशी से 2640 मतों से चुनाव जीत गये थे। अपने उस चुनाव प्रचार के बारे में बेनीपुरी जी अपने ‘डायरी के पन्ने’ मे लिखते हैं, ‘एक सज्जन ने चुनाव तक के लिए मोटर देने की बात कही थी। शुरू में ही वह मुकर गया। बड़ी चोट लगी। तुरंत तय किया, बैलगाड़ी से ही चुनाव लड़ूंगा। एक मित्र ने हाथी दे दिया था। बस, पूरी लड़ाई बैलगाड़ी और हाथी पर ही लड़ ली गई।’ बेनीपुरी जी के चुनाव क्षेत्र में पौने दो सौ गांव थे। उनका मानना था कि चुनाव में जनसमपर्क का बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है।
बेनीपुरी जी आगे लिखते हैं, मोटर नहीं रखकर मैंने कितना अच्छा किया। इन दो सवारियों (बैलगाड़ी और हाथी) से बेनीपुरी जी ने अपने चुनाव क्षेत्र के पौने दो सौ गांवों और टोलों में लोगों से अच्छा जनसंपर्क कायम कर लिया। लोगों से अपनापन महसूस किया। वे लोगों से कहते, ‘पिछला चुनाव मैंने हवा गाड़ी पर लड़ा, इसलिए हवा में ही रह गया। इसबार मैंने ज़मीन पकड़ी है। कौन पैर उखाड़ सकेगा मेरा?’
चुनाव प्रचार के वास्ते खुद के लिए बैलगाड़ी और कार्यकर्ताओं के लिए बेनीपुरी जी ने साईकिल का इंतजाम किया। वे लिखते हैं, ‘छ:-सात सौ रुपये देहात के मित्रों से लेकर 30 साईकिल की मरम्मत करा दी। ये 30 कार्यकर्ता जिस ओर चलते, गांव -गांव से साइकिलों का तांता लग जाता। दो सौ साइकिलें दौडतीं।’ बेनीपुरी जी खुद प्रतिदिन 5-7 मील पैदल चलकर मतदाताओं से सम्पर्क करते थे। जिस दौर में बेनीपुरी जी चुनाव लड़ रहे थे, उस समय की वोटिंग प्रक्रिया आज जैसी नहीं थी। वोटिंग दो-दो, तीन-तीन महीने तक होता था। तब स्थाई मतदान केंद्र भी नहीं होते थे। मत पेटियां होती थी। जितने प्रत्याशी, उतनी मतपेटी। मत पेटी पर प्रत्याशी का चुनाव चिन्ह चिपकाया हुआ रहता था। मतदान कर्मी मतपेटियों के साथ गांव में जाते। एक जगह ठहरते और मतदाता अपने पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिन्ह वाले बक्से में अपना वोट डाल देते थे। इसके बाद मतदान कर्मी बक्सा लेकर लौट जाते। दूसरे दिन दूसरे गांव में वोटिंग होती थी। मतदान प्रक्रिया लम्बी होने के कारण प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार के लिए काफी समय मिल जाता था। बेनीपुरी जी लिखते हैं, ‘चुनाव प्रचार का हमारा ठाठ बड़ा निराला था। जहां जाते, बैलगाड़ी पर सारा सामान लाद ले जाते थे। किसी का टूटा-फूटा दालान ले लिया, फर्श लग गई, स्टोव जल उठा, चाय बनने लगी, चुल्हा जला, हंडा चढ़ा। खाइए, पीजिए। बीच में हंसी-दिलग्गी, गाना-बजाना। ‘बेनीपुरी राजा की तरह लड़ें और राजा की तरह चुनाव जीत भी गये। उनको जमानत का 250 रुपया भी हाथ-हथफेर से जुटाना पड़ा था जबकि 1952 के चुनाव में बेनीपुरी जी को नगद 5 हजार और 25-30 मन चावल खर्च करने पड़े थे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)