विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास मे बाधक है पूंजीवाद
सांस्कृतिक, सामाजिक, और वैज्ञानिक आंदोलन भी पूंजीवाद से अछूता नहीं
ब्रह्मानंद ठाकुर
हमारे देश में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उभार 19वीं शताब्दी में नवजागरण आंदोलन के दौरान हुआ। वैसे तो प्राचीन भारत का अतीत कई मायने में बड़ा गौरवशाली था। भाषा के क्षेत्र में पाणिनी जैसे महान विद्वान भाषा और व्याकरण का विकास कर चुके थे। चिकित्सा के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत के योगदानग का उल्लेख आज भी आदर के साथ किया जाता है। गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट का योगदान अमर है। लेकिन यह भी सत्य है कि तत्कालीन कठोर वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के कारण हमारी सभी मूल्यवान बौद्धिक सम्पदा धीरे-धीरे नष्ट हो गई। ऐसा करने में मनुवाद ने अहम भूमिका का निर्वाह किया। मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि के लिए उसके चतुर्दिक वस्तुओं एवं परिवेश को समझाना पहली शर्त होती है लेकिन शंकराचार्य के ब्रह्म सत्यम, जगन्न मिथ्या की स्थापना ने हमारे देश में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दिया।
हम रुढ़िवादी होते चले गये। हमारे देश में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शुरुआत नवजागरण आंदोलन के दौरान राजा राममोहन राय के प्रयासों से हुई। वे ही पहला व्यक्ति थे जिन्होंने संस्कृत भाषा की शिक्षा, साहित्य, व्याकरण, प्राचीन ज्योतिष, श्रुतियों एवं स्मृति की जगह पाश्चात्य शिक्षा के इतिहास, प्राकृतिक विज्ञान और दर्शन की शिक्षा पर विशेष जोर दिया। ईश्वर चंद विद्यासागर ने तो वेदांत और सांख्य दर्शन को भ्रांत दर्शन करार दिया। उन्होंने आधुनिक साहित्य, विज्ञान, दर्शन और इतिहास पढ़ने की बात कही। इन महापुरुषों की पहल का ही परिणाम हुआ कि नवजागरण काल में हमारे देश के अनेक शिक्षित युवक विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रेरित हुए। साहित्यकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, कवि मधुसूदन दत्त और आचार्य जे सी बोस जैसे महान विभूति इसी दौर में पैदा हुए। पीसी राय, सीबी रमण, एस रामानुजन, एस एन साहा, एस एन बोस जैसे ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक इसी युग की देन हैं। इन लोगों की उपलब्धियों के कारण ही स्वतंत्रता पूर्व भारत विश्व विज्ञान के मंच पर सम्मान पूर्ण स्थान पा सका था। शिक्षा और विज्ञान के पाठ्यक्रम में सुधार लाने के लिए इन वैज्ञानिकों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने पर विशेष बल दिया था।
पीसी राय ने अंधविश्वास की न केवल आलोचना की बल्कि इसके दूरगामी दुष्प्रभावों से अवगत कराया। एस एन साहा ने हिंदुत्व समर्थकों के साथ हुए वाद- विवाद के साथ यह साबित कर दिया कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान वेदों में नहीं है। इस तरह उस दौर में हमारे देश में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास खूब तेजी से हुआ। दुखद यह रहा कि 19वीं शताब्दी के अंत तक आते-आते देश में पुनरुत्थानवादी विचारों का फैलाव हुआ और इसने धार्मिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इस तरह विज्ञान, साहित्य और जीवन के तमाम क्षेत्रों में हिंदुत्व द्वारा निर्देशित विचारधारा का प्रवेश हो गया। राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद विद्यासागर जैसे महान विभूतियों ने विकास की संभावना का जो द्वार खोला था, वह बंद हो गया। उभरते पूंजीपतियों का पर्दे के पीछे राष्ट्रीय आंदोलन पर कब्जा हो गया। इसने समझौतावादी रुझान को आजादी आंदोलन में प्रश्रय देकर उसे अपने वर्ग हित में उपयोग करना शुरु कर दिया। सांस्कृतिक, सामाजिक, और वैज्ञानिक आंदोलन भी इससे अछूता नहीं रहा। इसी का परिणाम है कि देश आज जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धार्मिक कट्टरता अंधविश्वास और धार्मिक अंधता की जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है। पूंजीवादी राजसत्ता वैज्ञानिक संसाधनों का उपयोग तो करती है लेकिन व्यक्तिक जीवन में वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सर्वथा विरोधी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)