डॉ योगेन्द्र
मैदान में युवाओं का एक झुंड टेपरिकार्डर की धुन पर नाच रहे थे। सुबह का समय था। सूरज देवता मुश्किल से पूरब क्षितिज पर आगमन की सूचना दे रहे थे। मैदान अमूमन शांत था। बूढ़ों का एक समूह योग कर अपनी जिजीविषा बढ़ाने मैदान के एक किनारे में योग कर रहे थे। जब दिन बीत जाता है, तब जीवन का अहसास ज़्यादा होता है। जब गाड़ी छूटने को होती है तो तत्परता देखते बनती है। कमोबेश बूढ़ों की यही दशा थी। युवाओं को नाचते, हाथ हिलाते, कमर लचकाते देख कर लगा कि वे बहुत ख़ुश हैं। जब युवाओं ने अपना अटपटा नृत्य शुरू किया तो मैदान में जो भी लोग मौजूद थे, वे उन्हें देखने लगे। यहाँ तक कि बूढ़ों ने भी अपना योग स्थगित कर दिया। टहलने वाले थम गये। वे सोचने लगे कि इन युवाओं को हुआ क्या है? सुबह का समय शांति का समय है। जो मैदान में आते हैं, वे ऐसी अशांति की उम्मीद नहीं करते। मगर युवा थे कि ठहरने का नाम नहीं ले रहे थे। वे नाचते नाचते धरती पर दंड बैठकी भी करने लगते। वृक्षों पर बैठी चिड़िया चुनमुन भी आश्चर्यचकित थी कि आख़िर यह हो क्या रहा है? कुछ पखेरू जो आसमान में दाना चुगने कहीं दूर देश जा रहे थे, उसने भी नज़र नीची कर युवाओं पर दृष्टिपात किया।
विश्व में सबसे ज़्यादा आबादी वाले इस देश में युवाओं की अच्छी ख़ासी संख्या है। बहुत से लोगों ने बार-बार दुहराया है कि युवाओं के कंधे पर ही देश का भविष्य है। हरिवंश राय बच्चन ने एक कविता लिखी है- युग के युवा। उसकी पंक्तियां हैं- “युग के युवा, युग के युवा, मत देख दायें,और बायें। झाँक मत बगलें, न आँख कर नीचे, अगर कुछ देखना है, तो देख अपने वृषभ कंधे, जिन्हें देता निमंत्रण …” युग की चुनौतियाँ उन्हें निमंत्रण देती है। उनके कंधे कैसे हैं तो वृषभ की तरह। मैदान में नाचते युवा शायद अपने कंधों को मज़बूत कर रहे हैं। इससे देह तो निश्चित मज़बूत होगी, मगर क्या मन भी मज़बूत होगा? शायद हो। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है। क्या वे युग की चुनौतियों का भी सामना कर सकेंगे?
हर दिन पचासों युवा देश के विभिन्न कोनों में आत्महत्या करते हैं। यानी एक पूरी कक्षा आत्महत्या कर लेती है। जीने की इच्छा कर मर जाना सदी की महानतम दुर्घटनाओं में से एक है। बूढ़ों में यह बीमारी हो तो एक हद तक क्षम्य है, लेकिन युवाओं में इस बीमारी का होना बताता है कि देश में सबकुछ ठीक नहीं है। देश के लाखों युवा नयी उम्मीदों के साथ कोटा पहुंचते हैं। पिछले तीन वर्षों में साठ युवाओं ने आत्महत्या कर ली। कोटा में हर वर्ष ढाई लाख युवा पहुँचते थे। इस वर्ष वहाँ आधे युवा पहुँचे यानी सवा लाख। सूचना यह है कि आईआईटी से निकले युवाओं में से 38 प्रतिशत को ही अच्छी नौकरी मिलती है। शेष बीस पच्चीस हज़ार में जीवन गुज़ारने को विवश है। भविष्य की दुश्वारियों और दुश्चिंताओं से युवा अवसाद में जाते हैं और आत्महत्या को विवश होते हैं। युवा जिस शिक्षा व्यवस्था से ट्रेनिंग प्राप्त करते हैं, वे व्यवस्था सिर्फ़ इतना बताती हैं कि जिसे नौकरी मिल गई, उसका जीवन सफल है। यानी शिक्षा का कुल मतलब नौकरी प्राप्त करनी है। यह शिक्षा जीवन जीने के तरीक़े नहीं बताती, बल्कि नौकर बनने के तरीक़े बताती है। अब नौकर बनने के लिए भी जगह नहीं है तो फिर ये युवा क्या करें? इस प्रश्न का हल ढूँढना बहुत ज़रूरी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)