शिक्षा पर राजनेताओं और नौकरशाहों का नियंत्रण

लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा की जनतांत्रिक पद्धति होनी चाहिए

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ब्रह्मानंद ठाकुर
ब्रिटिश उपनिवेश काल में भारतीय समाज कई दृष्टियों से दुर्बल हो चुका था। स्वतंत्रता आंदोलन के उबाल ने इन तमाम दुर्बलताओं के बाबजूद कला, साहित्य और शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में कुछ ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को पैदा किया जिनका शिक्षा सम्बन्धी नजरिया उस समय की प्रचलित शिक्षा प्रणाली से सर्वथा अलग थी। लार्ड मैकाले भारत में अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें मजबूत करने वाली शिक्षा पद्धति लागू कर चुके थे। आम जनता तक शिक्षा की पहुंच नहीं थी। 1920-21 के असहयोग आंदोलन के दौरान स्कूल-कालेज का बहिष्कार और राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना उस समय के आंदोलन का मुख्य लक्ष्य बन गया था। आजादी के बाद शिक्षा को सर्व सुलभ और ज्ञानपरक बनाने के लिए इस बात पर बल दिया गया कि सरकार शिक्षा पर होने वाला सभी खर्च तो वहन करे लेकिन उसपर नियंत्रण राजनेताओं और नौकरशाहों की जगह शिक्षाविदों का रहे। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा की यही जनतांत्रिक पद्धति होनी चाहिए। तात्पर्य यह कि शिक्षा सम्बन्धी विषय वस्तु, पाठ्यक्रमों, एवं इससे सम्बन्धित नीतियों का निर्धारण शिक्षाविदों द्वारा होना चाहिए न कि सरकार द्वारा। अपने देश में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? इस प्रश्न का जवाब हमें देश की पूंजीवादी -बाजारवादी व्यवस्था में तलाशने की जरुरत है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के आगमन के साथ ही हमारा समाज शोषक और शोषित दो वर्गों में विभाजित हो गया। जाहिर है, किसी भी वर्ग विभाजित समाज में शिक्षा और शिक्षा पद्धति की कोई भी धारणा वर्गीय अवधारणा से मुक्त हो ही नहीं सकती। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में शिक्षा पद्धति भी ठोस आर्थिक आधार पर खड़ा एक सुपर स्ट्रक्चर होता है। स्वाभाविक है कि ऐसे में इसकी भूमिका अपने वर्ग हित के अनुरूप ही होगी। हर हाल में यह सत्ताधारी वर्ग के भौतिक और भावनात्मक हितों को ही संरक्षित करेगी।
ऐसा कोई भी दृष्टिकोण शिक्षा एवं शिक्षा से जुड़ी समस्याओं पर नहीं अपनाया जा सकता जो दोनों वर्गों के हितों का समान रूप से पोषण कर सके। राष्ट्रीय आजादी आंदोलन के नेताओं ने जनवादी, धर्म निरपेक्ष, वैज्ञानिक और नि:शुल्क शिक्षा पर बल दिया था। आजादी के बाद पहली बार 1968 में हमारे देश में कोठारी आयोग की अनुशंसा पर नई शिक्षा नीति लागू हुई। इसका उद्देश्य देशी एकाधिकार प्राप्त घरानों का हित साधन करना था। फिर उदारवादी वैश्विक अर्थनीति के दबाव में 1986 में दूसरी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुई। इसने शिक्षा के क्षेत्र में पूंजीनिवेश का दरवाजा खोल दिया। 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति का परिणाम सामने है। सही शिक्षा वहीं है जो जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं का बहादुरी से सामना करने वास्ते युवा पीढ़ी को योग्य बनाए। ‘हमें क्या सोचना चाहिए’ वाली यांत्रिक शिक्षा की जगह कैसे सोंचना चाहिए, वाली शिक्षा की जरूरत है। यह राजनेताओं और नौकरशाही के नियंत्रण वाली शिक्षापद्धति में सम्भव नहीं है।

 

Control-of-education-by-politicians-and-bureaucrats
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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