डॉ योगेन्द्र
चंद्रपुरा और बोकारो के बीच बहती है दामोदर नदी। दामोदर नदी पर एक पुल है जिस पर से ट्रेन गुजरती है। सुबह-सुबह दामोदर लेटी हुई सी लगी। शांत सी, न कोई लहर। सूरज की किरणें उन्हें छूने की कोशिश कर रही थी। नदी के पेट में ठोस पत्थर। छोटे बड़े गड्ढे में स्थिर जल। उस पर बिछती ठंड की हल्की चादर। आस-पास जंगली पौधे। मन में यह बात आयी कि दामोदर नदी से पूछूं कि झारखंड चुनाव में कोई उसका नाम ले रहा है या नहीं? दामोदर कृष्ण का एक नाम है। कभी यशोदा ने कृष्ण को रस्सियों से बांध दिया था। दामोदर का अर्थ होता है रस्सियों से बंधा पेट। शायद उसका बहाव कुछ इस तरह से है कि लगता है, वह अपने इलाके में ऐसा ही आकार ग्रहण करती चलती है। आजादी के पूर्व यह नदी बहुत बदमाश हुआ करती थी। जब बहती थी तो इलाके को डुबोती चलती थी। यहाँ तक कि उसकी राह में जो आती है, उसे बहाती चलती है। बराकर नदी तो 1913 में ग्रांड ट्रंक रोड पर बने दो पत्थरों के पुल को तोड़ दिया था और 1946 में लोहे का पुल। यह बंगाल के कई इलाक़े को डुबोती रही है, इसलिए इसे बंगाल का शोक नदी भी कहा जाता था। यह एक बरसाती नदी है। छोटानागपुर के पहाड़ों से निकल कर यह हुगली नदी में जाकर गिरती है। दामोदर नदी की कई सहायक नदियाँ हैं- बराकर, कोनार, बोकारो, हाहारो, जमुनिया, घरी, गुइया, खड़िया और भेरा।
दामोदर नदी की बदमाशियों को नियंत्रित किया दामोदर नदी घाटी परियोजना ने। नदी की तीक्ष्णता तो ख़त्म हो गई, लेकिन इससे भी भयावह दूसरी समस्या उत्पन्न हो गई। दरअसल सदियों से होता यह रहा है कि ज्वार-भाटे के कारण नदी के मुहानों पर गाद जमा हो जाता था, जिसे दामोदर की अनियंत्रित रफ़्तार फिर से उसे समुद्र के पेट में डाल देता था। दामोदर जब शांत हो गई तो नदियों के मुहानों पर गाद जमा होता चला गया। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी। नतीजा हुआ कि हुगली बंदरगाह गाद से भर गया। इसकी गहराई इतनी घट गयी कि इस पर जहाज़ आना मुश्किल हो गया। आज भी इस महान हुगली बंदरगाह में कोई जहाज़ नहीं आता – न मालवाहक, न यात्री जहाज़। सरकार चिंतित हुई। क्या किया जाय? जहाज़ तो आना है। तो सरकार ने साठ किलोमीटर दूर हाल्दिया में बंदरगाह बनाया। गाद की भयंकरता यह है कि अब इस बंदरगाह पर भी गाद का ख़तरा मंडरा रहा है। हम प्रकृति को समझते कम हैं, छेड़ते ज़्यादा है। अपने लाभ और गर्वोगुमान की तुष्टि के लिए बड़े-बड़े काम करते हैं। हम दावा करते हैं कि हम बहुत उन्नत हुए हैं, लेकिन प्रकृति हमसे ज़्यादा उन्नत है। यह समझना नहीं चाहते। प्रकृति से ही हम हैं। प्रकृति नहीं तो हम क्या हैं?
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जिस नदी घाटी परियोजना को आधुनिक लोकतंत्र का मंदिर कहा था, वह विनाश का मंदिर साबित हो रहा है। जब हुगली बंदरगाह पर संकट गहराय तो सरकार नदी घाटी परियोजना को तो ख़त्म कर नहीं सकती थी, इसलिए वह दूसरा काम करने लगी। उसने सोचा कि गंगा के पानी को रोक कर अचानक पाना छोड़ा जाय जिससे गाद समुद्र के पेट में पहुँच जाय। इसलिए गंगा नदी पर फ़रक्का बराज बनाया गया। उस समय के इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने कहा कि यह संभव नहीं है। गंगा के पास इतना पानी नहीं है, जिससे यह काम संभव होगा। उल्टे गंगा पर संकट गहरायेगा। कपिल भट्टाचार्य को पाकिस्तान का दलाल कह कर उसे नौकरी से भी निकाल दिया, लेकिन उनकी कही बातें अक्षरशः सही साबित हुई।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)