झूठे वादों से बर्बाद हुआ लोकतंत्र

आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी बढ़ती रही तो लोकतंत्र कायम कैसे रहेगा?

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डॉ योगेन्द्र

पहले राजा बनने के लिए युद्ध होता था। कोई पिता को मारता था। कोई भाइयों का वध करता था। किसी को जहर देता था तो किसी का धोखे से सिर उतारता था। वे जनता के प्रति जिम्मेदार नहीं होते थे, क्योंकि राजा बनाने में जनता की कोई भूमिका नहीं होती थी। भारत में तो यह था कि गांव के मैदान में युद्ध हो रहा है और गांव वालों को कोई मतलब नहीं था- ‘कोय होई नृप हमें क्या हानी’। नृप बनते थे, बिगड़ते थे। मगर वक्त बदला। अब चुनाव होता है और यह चुनाव लोगों के द्वारा होता है। वैसे लोग जो पढ़े हैं, बेपढे हैं, अमीर हैं, गरीब हैं, ये वोट देकर चुनते हैं। सभी लोगों के वोट का मान बराबर है। इसलिए नेता पूंजीपति के सामने भी हाथ जोड़ते हैं और गरीबों के सामने भी। लोकतंत्र में कम से कम वोट के मामले में एक निर्धन, अंबानी के बराबरी कर सकता है। संविधान में यह अधिकार बेमिसाल है, लेकिन संविधान ने जो काम हम सबके के लिए छोड़ दिया है, वह है आर्थिक और सामाजिक बराबरी का। डॉ. अम्बेडकर और संविधान सभा में शिरकत कर रहे लोगों ने इस ओर बहुत कम ध्यान दिया। अगर आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी बढ़ती रही तो फिर लोकतंत्र कायम कैसे रहेगा? संपत्ति और सम्मान जीवन के लिए बहुत जरूरी है। वोट की बराबरी से सामाजिक जीवन में बहुत अंतर नहीं पड़ता। जिसके पास संपत्ति है, वह वोट को खरीद लेता है। वोट की ऐसी तैसी करने का कौशल उसके पास है, जिसके पास पूंजी है या झूठे वादे करने का कौशल है।
देश में जो चुनाव हो रहा है, वह क्या वाकई चुनाव है? लोग अपनी सदिच्छा से बूथ तक पहुंच रहे हैं और बिना किसी लोभ, लालच और दुष्प्रभाव के वोट दे रहे हैं? जीवन में बताया जाता है कि झूठे – लुच्चे अच्छे नहीं होते। ऐसे लोगों की इज्जत नहीं करनी चाहिए। चुनाव प्रचार में क्या होता है? जो प्रधानमंत्री बनेंगे, वे झूठ बोल रहे हैं। ऐसे-ऐसे वादे करते हैं, जो सात जन्म में पूरे नहीं होंगे। 2014 के लोकसभा चुनाव का दो वादे याद कीजिए। हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार और स्विस बैंक से काले धन की वापसी। वादे और भी किये गये थे। लेकिन उन्हें छोड़िए। इन दो वादों का कुल हश्र यह है कि बेरोजगारी घटने के बजाय बढ़ गई और स्विस बैंक से एक धेला भी काला धन वापस नहीं आया, उल्टे काला धन बढ़ गया। इस झूठे वादे के लिए किसी ने खेद नहीं जताया, न देश की जनता से माफी मांगी। हर चुनाव में हर दल के नेताओं ने बड़े-बड़े वादे किए और वे कभी पूरे नहीं हुए। जनता ने भी पलट कर पूछा नहीं, क्योंकि अगले चुनाव में और दूसरे वादे थे। ऐसे झूठे लोग सत्ता चलाते हैं, तो सत्य हरिश्चन्द्र वाला समाज कहां से आयेगा?
सर्वोच्च कुर्सी धारण करने वाले कह रहे हैं कि झारखंड में घुसपैठिए आ गये हैं। ग्यारह वर्ष से आप सत्ता में बैठे हैं। गृह मंत्री चाणक्य हैं। विदेश मंत्री आपके हैं। सीमा सरहद आपका है, तब भी घुसपैठिए आ गये हैं तो आपको माफी तो मांगनी चाहिए। गलती किसकी है? और अब भी क्या हुआ है? अगर आपके पास घुसपैठियों का डाटा है तो जारी कीजिए और ऐसे लोगों को देश से निकालिए। दरअसल हमें झूठ परोसने आता है और जनता को झूठ खाने की आदत है। जनता को भी सीखना नहीं है और न ऐसे नेताओं से पूछना है। हमें तो लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालना है। जब तक इसे नेस्तनाबूद न कर दें, तब तक अभियान चलाते रहना है।

 

Democracy ruined by false promises
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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