बाबा विजयेन्द्र
इस राष्ट्र में गाय को भले ही कोई दर्जा आजतक नहीं मिल पाया हो,पर महाराष्ट्र में गाय को राज्य माता का दर्जा अवश्य मिल गया है? पर इनके लिए गाय का मतलब क्या है? किस गाय को राज्य माता का दर्जा मिल गया है? बात अगर देसी गोवंश की नहीं है तो बात बहुत ही बेईमानी ही होगी। किसी भी गाय को राज्य माता का दर्जा दे देना,यह संस्कृति और स्वदेशी की अवधारणा के खिलाफ है।
हमें देसी गाय की पहचान करनी होगी। देसी गाय की तासीर को समझना होगा। राज्य माता का दर्जा देसी गाय को दीजिये, जर्सी या दोगली को नहीं। गाय धर्मशास्त्र से ज्यादा समाज का अर्थशास्त्र है। जब गाय राजनीति शास्त्र से जुड़ती है तभी कटती और मरती है। गाय सरकार नहीं जीवन का सरोकार है।
जर्सी और दोगली गाय को अगर राज्य माता का दर्जा देंगें तो यह संस्कृति ही दोगली हो जाएगी? विदेशी गायें दोगली सभ्यता को ही जन्म देगी। जर्सी गाय का दूध पीकर कंस तो पैदा हो सकता है, पर कृष्ण पैदा नहीं हो सकता। इस गाय के साथ रहकर न तो गीता लिखी जा सकती है,और न ही गीता समझी जा सकती है।
वशिष्ठ के हाथ में कामधेनु की डोर होती है,जर्सी की नहीं। अगर गुरु वशिष्ट के पास भी दोगली गाय होती तो राम का वहां ठहरना मुश्किल ही होता। दोगली गाय की साधना से रामत्व पैदा नहीं हो सकता है। यह हुकूमत ही जर्सी है। इनके पास कोई जज्बात नहीं है। यह सरकार जब विपक्ष में होती है तो देसी और स्वदेशी बोलती है और सरकार में विदेशी बोलने लग जाती है।
अरे भाई माना कि मेरी मां दिव्यांग है। बावजूद मां तो मां ही होती है। विदेश से मातृत्व का आयात नहीं किया जा सकता। मां एक अनुभूति और अहसास का नाम है। मां की गोद स्वर्ग से बढ़कर है। इस गोद में निश्चिंतता पलती है। अफ़सोस है कि धरती से मां गायब हो रही हैं। उसकी कोख तो एक लैब भर है जिसमें शिशु पलता है। लैब से शिशु का जन्म तो हो जाता है पर सम्बोधन नहीं पैदा होता।
देसी गोवंश से हमारा जन्म-जन्म का सम्बन्ध है। इनसे हमें संज्ञा प्राप्त हुई है। इस राष्ट्र को गाय ने एक पहचान दी है। वसुधा को कुटुंब मानने का संस्कार दी है। भारत की संस्कृति को गाय ने अपने दूध से पाला पोषा है। गोमाता के लिए हिन्दू और मुसलमान क्या? इसका दूध रधिया की संतान के लिए भी उपयोगी है और रजिया की संतान के लिए भी उपयोगी है। ऐसी सर्वपोषिता का भाव केवल देसी गायों में ही होता है।
संघ परिवार के लोग गाय की बात तो बहुत करते हैं पर गाय को पहचानते ही नहीं हैं? गोसंरक्षण का मतलब देसी गोवंश के संरक्षण से ही है। हमारे गुरुदेव उपाख्य महाराज ने देशी गोवंश को बचाने और बढ़ाने का संकल्प लिया है। पच्चीस हजार से ज्यादा गायें संरक्षित की गयी हैं। केवल संरक्षण ही नहीं बल्कि गो-आधारित जीवन-मूल्य भी स्थापित हो रहा है।
अभियंता, डाक्टर, प्रबंधक जैसे हर विधा के निपुण लोग इस अभियान के हिस्सा हैं। खेती बदल रही है। धरती फिर से उर्बरा हो रही है। जैविक उत्पाद किये जा रहे हैं। नयी पीढ़ी भी महाराज के अभियान से जुड़ कर स्वस्थ मस्त हो रही है। किसानों की मुस्कुराहट लौट आयी है। खाद भी और खाद्यान्न भी सभी जैविक। दूध तो बोनस है। गोबर और गोमूत्र सबके लाभकारी प्रयोग किये जा रहे हैं। सारी कल्पनाएं हकीकत बनकर देश के सामने आ रही है।
गाय भारत सरकार के पशु मंत्रालय का ही हिस्सा है। सरकार का यह पशुवत चिंतन ही है जो गाय इनके लिए पशु से ज्यादा कुछ नहीं है ? कोई भाव नहीं, किसी विरासत का भान नहीं। पॉलिटिक्स को पवित्रता और अपवित्रता से क्या लेना देना?
पचास टके की गोमाता! यह पचास रूपया राज्यमाता घोषित होने के बाद पेंशन की तरह है। हमारा कहना है कि आप अपना पचास रुपया अपने पास रखिये। वह पचास रूपया बहुत वोट जुटाने में काम आएगा। बस गोचर-भूमि आप आबाद कर दें। अगर गाय असहाय हुई तो आप भी असहाय हो जाएंगे?
देसी गोवंश सूचीबद्ध हो। इनकी पहचान भी अद्यतन हो। किसान इनके महत्व को जाने। हम जानते हैं कि राज्य की अपनी सीमा होती है पर संभावना बहुत होती है। बस मजबूत इच्छा शक्ति की जरुरत होती है। राज्य सरकारें चाहे तो नयी गोकुल संस्कृति की शुरुआत हो सकती हैं।
तब सबेरा शंख बजायेगा। गोधूलि बेला होगी। लोरी गाती शाम होगी। हर बच्चा देवी की प्रतिमा और बच्चा-बच्चा राम होगा। आओ! हम महाराज के अभियान का सहभागी बनें।