धृतराष्ट्र और गौतम बुद्ध

अंधत्व कितना ख़तरनाक हो सकता है, इसका चरम धृतराष्ट्र में देखने को मिलता है

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डॉ योगेन्द्र
सुबह धुंध छायी थी। ठंड तो नहीं है, लेकिन कोहरे ने मैदान पर कब्जा कर लिया था। आसमान में मिरमिराया सा सूरज उग रहा था। कोहरे का आतंक सूरज पर भी जारी था। इस तरह की सुबह छठ में अक्सर दिखाई पड़ती है। खैर, मुझे सूरज उगने या उस पर कोहरे के छाने से कोई मतलब नहीं था। मुझे तो टहलना था। टहलते हुए मैं महाभारत देख रहा था। प्रसंग था- लाक्षागृह में पांडवों का भस्म होना। रोते हुए धृतराष्ट्र भीष्म को सूचना देते हैं कि कुंती समेत पांचों पांडव लाक्षागृह में भष्म हो गये। यह सुनकर भीष्म दुखित होते हैं और एकांतवास में चले जाते हैं। दुर्योधन, कर्ण, शकुनि, दु:शासन तो अतिरिक्त रूप से खुश हैं ही। हां, कर्ण जरूर कहता है कि पांडवों को वीरोचित मृत्यु नहीं मिली। मन में धृतराष्ट्र को लेकर उधेड़बुन रहा। उसके रोने में राजनीति थी या सह्रदयता? रोने की राजनीति तो होती ही रहती है। पांडवों से तो वह कभी खुश नहीं रहा। उसका जो चरित्र है, उसमें सह्रदयता नाम की कोई चीज नहीं है। अंधत्व कितना ख़तरनाक हो सकता है, इसका चरम धृतराष्ट्र में देखने को मिलता है। वैसे आंखें रहते हुए भी अंधे होते हैं। जिस आत्मा से सह्रदयता गायब हो जाय, वे एक तरह से अंधे ही हैं।

आजकल देश में अंधत्व का ही बोलबाला है। आप किसी भी दिन का अखबार उल्टा लीजिए और केवल हत्या की खबरें पढ़िए। समझ में आ जायेगा कि राज आंख वाले का है, लेकिन उस आंख में पानी नहीं है। आज के अखबार की हत्या संबंधी खबरें आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं-’ चचेरे भाई ने गोली मारकर की हत्या, पूर्णिया में पेशकार की हत्या, पूर्व जदयू पंचायत अध्यक्ष की हत्या, इस्माइलपुर दियारे में किसान को गोली मारी। हर दिन हत्या की खबरें धड़ल्ले से छप रही हैं। इसका एक मतलब तो है कि समाज में ला एंड आर्डर नहीं है। मैं खुद महसूस करता हूं कि मुझे कोई गोली मार दे तो कोई देखने सुनने वाला नहीं है। बहुत होगा तो अखबारों में इसी तरह खबर छप जायेगी, लेकिन फिर नील बटे सन्नाटा होगा। लोकतंत्र में इतनी सुरक्षा भी नहीं है, जबकि संचार माध्यम शिखर पर है। दरअसल प्रशासन पर न सरकार को विश्वास है, न जनता को। प्रशासन खुद जनता का खून चूसने में लगा है। जनता पुलिस से दूर भागती है कि उसके चक्कर में आये, तो गये काम से। लाक्षागृह में क्या हुआ था? कौरवों की ओर से साजिश रची गई थी। लोकतंत्र में क्या अपने-अपने लाक्षागृह नहीं हैं? लोक के खिलाफ साजिश ही तो है। जो लोकतंत्र का मालिक है, वह सबसे ज्यादा असुरक्षित है। कौन कहां जल जायेगा या जला दिया जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं।

एक महाभारत बाहर है तो दूसरा अंदर है।‌ अंदर और बाहर दोनों जगह आदमी पिस रहा है। महाभारत में एक धृतराष्ट्र था तो इतना भयावह महाभारत हुआ। अभी तो कदम-कदम पर धृतराष्ट्र है। पंचायत, प्रखंड, जिला, राज्य और केंद्र में – हर स्थल पर धृतराष्ट्रों का कब्जा है। आंखें हैं, पर सूखीं हैं। कान है, पर सुनने में अक्षम है। सारी इंद्रियां असमर्थ हो गयी हैं। ऐसी दशा में हर जगह छोटे-छोटे महाभारत तो होंगें हीं। हम चाहें, न चाहें। यह महाभारत हस्तिनापुर के महाभारत से ज्यादा खतरनाक है। तिल-तिल कर और घुट-घुट कर मरना। लोकतंत्र का यह महा अभिशाप है। इससे उबरना कितना कठिन है! पर आदमी के पास जब तक जीने का विश्वास है, वह संघर्ष तो करेगा। धृतराष्ट्र अपने अंधत्व के लिए विख्यात है, तो गौतम बुद्ध सह्रदयता के लिए। महाभारत और महा करूणा दोनों की भी यही धरती है। हमें और आपको चुनना है कि जाना किस रास्ते है?

 

Dhritarashtra-Gautam-Buddha
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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