डॉ योगेन्द्र
दिवाली गुजर गयी। सुबह जब टहलने निकला तो रास्ते में पटाखों के अवशेष, पन्नियां और ताश के पत्ते पड़े थे। मैदान में टहलने वालों की संख्या न के बराबर थी। शायद रात की थकान होगी। पटाखे छोड़ने में कम बल थोड़े ही लगता है! मैं तो दस बजे सो जाता हूं। लगभग डेढ़ बजे रात को नींद खुली तो मैंने पटाखे की आवाज सुनी। पटाखे क्या उतरती रात में भी छोड़े जा सकता हैं? नींद में डूबी दुनिया को पटाखों से जगाने की जरूरत है?
भागलपुर में एकाध साल पूर्व पटाखे बनाने वाले के घर में ऐसा विस्फोट हुआ था कि उसके तो घर उड़े ही। आस-पास के घर भी उड़ गए। नतीजा हुआ कि जिला प्रशासन ने निर्णय लिया कि शहर में कोई पटाखे की दूकान नहीं होगी। उसे शहर बदर किया गया। दिवाली में छूट मिली और सड़क किनारे सैकड़ों दूकानें सज गयीं। पटाखे बिके और खूब बिके। मैंने दीये नहीं देखे। मैंने पचास दीये खरीदे थे। उन्हें जलाया। आर्ची पांच साल पूरे कर चुकी है। उसने कहा कि तेल मैं डालूंगी। उसने तेल डाले और चूक नहीं की। मेरे मन में यह बात आयी थी कि कहीं तेल गिर न जाए! मना करने की भी इच्छा हुई, लेकिन फिर सोचा कि नहीं, उसे तेल डालने देना चाहिए।
महाराष्ट्र और झारखंड गर्म है। राज करने की नीति ठंडी कैसे होगी? अखबार से गुजरते हुए देख रहा था। कोई इधर था, उधर चला गया। कोई उधर था, इधर चला आया। किसी के आने जाने में कोई बाधा नहीं है। समभाव सक्रिय रहता है। पार्टियों में थोड़े बहुत जो विचारों के अवशेष हैं, उसकी वजह प्रतिबद्धता नहीं, वोट मिलने की संभावना है। जहां-जहां यह संभावना दिखती है, राजनेता वहां पहुंच जाता है। विचारों के उस अवशेष को वे बाजार में बेचने पहुंच जाते हैं। राजनेता अब सेल कंपनियां हैं। अपने उत्पाद को वे सार्वजनिक मंच देते हैं। मैं भी राजनीति में शामिल हुआ था। तीन-तीन विधान परिषद और एक लोकसभा का चुनाव लड़ने के बाद भी राजनीति में टिक न सका। विधान परिषद के तीनों चुनावों में दूसरे स्थान पर रहा। एकाध बार तो लगा कि चुनाव जीत सकता हूं, लेकिन मतदान के दो तीन दिन पूर्व अहसास हो गया कि मैं चुनाव हार जाऊंगा, क्योंकि करीब रहने वाले लोगों की आंखें बदलने लगी थीं। आंखें बहुत कुछ कहती हैं। मुंह बंद भी हैं, तब भी सबकुछ जान सकते हैं।
हर सुबह बुलबुल आ जाती है और शीशे पर चोंच मारती है। पता नहीं, वह क्या चाहती है? बंदरों का झुंड आकर खिड़कियों पर जो जाले लगे हैं, उस पर बैठ जाते हैं। ज्यादातर बंदरों के पास उसके नवजात बच्चे रहते हैं। कुछ कहो तो वे खिसियाते हैं और काले चेहरों के बीच उसकी सफ़ेद दंतपंक्तियां अजीब लगती है। देवघर की एक पहाड़ी पर आप जायें, तो बंदर आपके हाथ से खाने का सामान छीन लेते हैं। वहां दूकान दार एक रखवाले को रखता है जो सिर्फ बंदर भगाता रहता है। मनुष्य का जीवन अन्य जीवों पर आश्रित है। मनुष्य तो घर पर घर बना रहा है और जीवों के घर को उजाड़ रहा है। हम ज्ञान की दुनिया में हैं, लेकिन व्यवहार अज्ञानियों की तरह करते हैं। हम जानते हैं कि हमारी यह कार्रवाई मनुष्यता के लिए ठीक नहीं है, लेकिन करते वही हैं। अपने घर को अतिरिक्त सामान से सजाने का मतलब किसी के घर उजाड़ना भी होता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)