डॉ योगेन्द्र
एक गाँव में एक तालाब था। तालाब को जितना खोदना था, लोगों ने खोदा नहीं। नतीजा हुआ कि उसमें पानी ठहरा नहीं। लेकिन घोषणा यह हो गई कि मुख्यमंत्री इस तालाब को जीविका दीदी के नाम करेंगे। तालाब में पानी न रहे तो तालाब तालाब क्या? स्थानीय प्रशासन परेशान। मुख्यमंत्री जी के आने की तारीख तय हो गई। तीन दिन बाद वे पदार्पण करेंगे। मुख्यमंत्री जी अगर यह पूछ दें कि तालाब खुदवाने के लिए जो पैसा दिया गया था, वह कहाँ और किसके पेट में गया? तो प्रशासन जवाब क्या देगा? तालाब में चाहे जैसे भी हो, पानी तो चाहिए। पानी किसी तरह आ जाए तो कम से कम पाप तो ढंक जायेगा! पानी लाने के बारे में सोचा जाने लगा। विचार विमर्श और लगातार मंथन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि गाँव के लोगों के घरों में जो बोरिंग है, उससे पानी तालाब में डाला जाय। तीन दिनों तक गाँव में बिजली की आपूर्ति रात दिन की गयी। बोरिंग से पानी डाला जाने लगा। तीन दिनों तक बोरिंग पानी डालते डालते थक गयी, तब जाकर तालाब में काम लायक पानी जमा हुआ। नियत दिन मुख्यमंत्री जी आये। जीविका दीदियों का जमावड़ा लगा था। बैनरों से तालाब अटा पड़ा था। उन्हें देखकर मुख्यमंत्री हर्षित हुए कि राज्य तरक्की कर रहा है। जीविका दीदियाँ भी मुस्कुरा रही थीं। सबको सबकुछ पता था, लेकिन किसी को कुछ पता नहीं था। प्रशासन भी खुश था कि चलो मामला सलट गया।
यह कथा लोकतंत्र की सच्ची कथा है। गाँव, जिले आदि छुपाए गए हैं, लेकिन कहानी सौ प्रतिशत सही है। किसी अखबार या खोजी पत्रकार ने इसका जिक्र नहीं किया। लोकतंत्र में आँखों पर हर ओर पट्टियाँ लगी हैं। जनता से लेकर भाया मीडिया और तमाम बुद्धिजीवी भयंकर रोग से ग्रसित हैं। कोऊ होऊँ नृप हमें का हानी, चेरी छाड़ि न होयब रानी। जनता लोकतंत्र का मालिक है, लेकिन जनता चेरी स्वभाव की है। वह खुद को मालिक नहीं, दास समझ रही है। मुख्यमंत्री जी के पास कैसे कैसे लोग हैं, इससे पता चलता है। सच्चाई कहीं और जगह रहती है और मुख्यमंत्री कहीं और। सूखे तालाब को तात्कालिक ढंग से पानी भर कर उद्घाटन करवाना- आज की तिथि में कितनी दुखदाई है, इसका अनुमान लोगों को नहीं है। इसका असर बच्चों और नौजवानों के दिमाग पर पड़ता है। अगर मुख्यमंत्री सच्चाई देख नहीं पा रहे तो आने वाली पीढ़ी क्या सोचेगी और देखेगी? हम पूरी पीढ़ी के गुनाहगार हैं। उन्हें आँख रहते हुए अंधा बना रहे हैं। राजराजेश्वर जब हुआ करते थे तो ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती थीं, लेकिन दुनिया में इंटरनेट और कृत्रिम मेधा के युग में भी ऐसी घटनाएँ घट रहीं हैं। जब मुख्यमंत्री से लेकर आम लोगों के मन खराब हो जायें, तब लोकतंत्र में बचा क्या है? इसलिए मैं कहता हूँ कि रीढ़ की हड्डी सीधी करो। इस दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है। स्थायी है तो किये गए काम। मुख्यमंत्री भी नहीं होंगे किसी दिन और किसी दिन जनता भी जा चुकी होगी, लेकिन उन्हें किस रूप में याद किया जाएगा, इसका मूल्यांकन जरूरी है। मैं सोच कर ही घबड़ाता हूँ कि ऐसे भी काम हो सकते हैं, जिसमें जनता, पढ़े लिखे लोग और आईएसएस जैसे अधिकारी शामिल हों।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)