ब्रह्मानंद ठाकुर
नौ दिनों तक चलने वाले शक्ति की उपासना का अनुष्ठान विजया दशमी के साथ-समाप्त हो गया। शास्त्रों में इस त्योहार को बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म की जीत का प्रतीक कहा गया है। राम ने इसी दिन रावण का वध कर लंका पर विजय प्राप्त की थी। कुछ विद्वानों ने राम-रावण युद्ध को दो सभ्यता-संस्कृति के बीच का युद्ध कहा है।
महाकवि निराला की एक कविता है, राम की शक्ति पूजा। सीता को रावण से मुक्त कराने के अपने प्रयासों को लेकर राम थोड़ा बेचैन है। अपने उद्देश्य में सफल होने के लिए वे शक्ति की उपासना शुरू करते हैं। इस क्रम में वे आठ दिनों तक प्रतिदिन एक-एक कमल पुष्प महाशक्ति को अर्पित करते हैं। नौवें दिन नौवां कमल-पुष्प अर्पित करना है। लेकिन वह फूल गायब हो जाता है। शक्ति पूजा में विघ्न। राम निरुपाय होकर उस कमल पुष्प की जगह अपनी एक आंख निकाल शक्ति को अर्पित करने को तैयार हो जाते हैं। इसी बीच चमत्कार होता है। महाशक्ति साक्षात उपस्थित होकर ‘होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन’ का आशीष देती हुई राम के शरीर में प्रवेश कर जाती है। फिर राम रावण का वध कर सीता का उद्धार करते है। जाहिर है, राम ने अपने बूते रावण पर विजय नहीं प्राप्त की थी। यह एक मिथकीय कथा है, जिसका कवियों, लेखकों ने अलग-अलग तरीके से वर्णन किया है।
अगर हम वर्तमान परिवेश में शक्ति की पूजा को बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की जीत और नारी-अस्मिता की रक्षा की दृष्टि से देखें तो जो स्थिति नजर आती है, वह बड़ी डरावनी है। रावण महान था। उसने सीता का हरण कर अशोक वाटिका में सम्मान पूर्वक रखा। उसका स्पर्श करने की बात तो दूर, कुदृष्टि तक नहीं डाली। आज का मंजर देखिए। हर जगह महिलाओं की अस्मिता से खिलवाड़। घर से दफ्तर तक महिलाओं से दुर्व्यवहार। उसके प्रति असमानता का भाव। मानो वह मनुष्य नहीं, सिर्फ वस्तु हो। ऐसे में शक्ति पूजा हमें मानवता की रक्षा और विकास के लिए शक्ति प्रदान क्यूँ नहीं करती। समाज में बढ़ रहे अपराध, अत्याचार, भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए प्रेरित नहीं करती। गंगा है न, अपने किए का पाप उसमें धो कर निष्पाप हो जाएंगे। छप्पन कोटि देवी-देवता हैं न ! हत्या, बलात्कार जैसे अपराधों को माफ करने के लिए! आज यही हो रहा है। जप-तप, पूजा-पाठ का उद्देश्य यही है।
याद रहे, कबीर आज भी हैं। वे हर धर्म के ढोंगियों की आंख में ऊंगली डाल अपनी सच्ची और खरी-खरी सुनाते रहेंगे। किसी को बुरा लगे या भला। विजयादशमी पर रावण दहंंन का आयोजन भी कुछ ऐसा ही है। नवरात्रा शुरु होने से पहले से ही रावण, कुम्भकरणी, मेघनाद का पुतला बनाने का काम शुरू हो जाता है। बड़े-बड़े विशालकाय पुतले।
अब इसमें भी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। इसके लिए नये-नये तकनीक का प्रयोग होने लगा है। हजारों-लाखो का ख़र्च। रावण दहन का कार्यक्रम विजयादशमी से शुरू होकर पूर्णिमा तक चलता रहता है। इसके पीछे पूजा समितियां और मेला आयोजकों का अपना व्यावसायिक हित छिपा होता है। रावण दहन होने तक मेला गुलजार रहता है। मेला में लोगों की भीड़ जुटती रहती है। नाच-नौटंकी, झूला वालों के लिए यह बड़ा लाभकारी होता है। रावण दहन के दिन मेला में मिठाई दुकानदारों की बासी जलेबी पर भी ग्राहक टूट पड़ते हैं। कहने को हम इक्कीसवीं शताब्दी में जीने की बात करते हैं, लेकिन सोच पुरातनपंथी ही है।
पर्व-त्योहारों पर सामाजिक विसंगतियों, अंध विश्वास और संस्थागत भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों के प्रति जनमानस को जागरुक करने के लिए किसी भी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों द्वारा कोई कार्यक्रम आयोजित न करना चिंता का विषय है। ऐसे में समाज के प्रबुद्ध जनों के जेहन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि रावण दहन करने वाले क्या सही में राम भक्त हैं?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)