बाबा विजयेन्द्र
राहुल गांधी भाजपा पर लगातार हमला कर रहे हैं। हर रोज एक नए सवाल के साथ भाजपा के सामने आ धमकते हैं। समाचार चैनलों को भी मसाला मिल जाता है। शुरू हो जाता है फिर वही मुर्गा लड़ाने का खेल ! राम किसी को सत्ता दिला रहे हैं और किसी को टीआरपी? राम ही पक्ष है और राम ही विपक्ष है।
राम पीएम भी बनाते हैं और नेता प्रतिपक्ष भी बनाते हैं। चाहे समर्थन हो या विरोध, राम सबके धुरी बने हुए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं अब किसी भी बहस में राम ही राम हैं। रहमान चर्चा में नहीं है। पोशाक देखकर बहस हो रही है। विशेष धर्म के लोगों को इसलिए बुलाया जाता है ताकि ये सार्वजनिक रूप से अपमानित होते दिखे? कभी आप डिबेट देखें। दो कौड़ी के पत्रकार इन्हें इस तरह हड़काते नजर आते हैं मानो ये उनके गुलाम हों?
इन्हें राम पर, राम मंदिर या रामचरित मानस पर किसी अनोखे अमर्यादित बयान का इंतज़ार रहता है। जहाँ कुछ हुआ कि टीवी वाले खम्बा खूटा गाड़ने लग जाते हैं। फिर शुरू होती है राम की नासमझी वाली व्याख्या ? सतही वक्ता और उसके सतही डिबेट। तुलसीदास अगर अभी होते तो चित्रकूट छोड़कर कहीं दूर भाग गए होते कि इस राम की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी? यह कौन सा नया राम है। यह दैविक है या डेमोक्रेटिक?
राम कोई वाद नहीं है, न ही विवाद है। यह तो निर्विवाद है। राम थीसिस और एंटीथेसिस भी नहीं है, यह तो एक सिंथेसिस है। रामराज मार्क्स का वह सिंथेसिस ही है। यह अलग बात है कि राम ने आदिवासियों/दलित एक हो का नारा नहीं लगाया? हुकूमत जार की हो या रावण की, सर्वहारा ही संघर्ष करते आ रहे हैं। राम अपने वक्त की निरंकुश सत्ता के खिलाफ विद्रोह करते हैं। संघर्ष कर हासिल हुई सत्ता पर कब्ज़ा नहीं करते। सत्ता के हक़दारों को सत्ता वापस कर अपनी मातृभूमि की तरफ लौट आते हैं। स्वर्णमयी लंका से विरक्त होना कोई साधारण साधना नहीं है।
राम बाजारवाद के खिलाफ एक विद्रोह है। सोने की यह लंका एक उपभोक्तावाद का ही प्रतीक है। बाजार के बहाने हमारी अस्मिता हर ली जाती है। बाजार अस्मिता पैदा नहीं कर सकता। मारीच तो मार्केटिज्म का ही पर्याय था। मारीच क्षेपक हो या रूपक लेकिन है इस वक्त की एक हकीकत ! थोड़ा भी लोभ किस तरह पीड़ादायक हो जाता है राम अपने जीवन और संघर्ष से इसे दर्शाने की कोशिश करते हैं। सीताहरण एक अस्मिता का ही हरण है। सबके अपने अपने राम हैं। यहीं राम की विराटता हीं है। आम लोग नेताओं के द्वारा राम पर उठाये गए सवालों को लेकर संजीदा नहीं दिखते। बेवकूफों की जमात कहकर इसे ख़ारिज करते हैं।
राहुल गाँधी को हो सकता है कि राम और रामत्व की समझ न हो पर जिनके पास कथित समझ है वे भी राम को छोटा करने पर तुले हैं। राहुल गाँधी ने कहा कि अयोध्या में नाच गाना हुआ और अयोध्या के जश्न में केवल खाये पीये अघाये लोग हीं आये। किसी गरीब गुरुओं और किसानों की भागीदारी नहीं हुई?
यह सच है कि जिस वर्ग की उपस्थिति थी अयोध्या के जश्न में, इसे दूसरे तरीके से भी समझा जा सकता है। आत्ममुग्ध कारपोरेट को यहां से यह सन्देश मिला कि संस्कृति की भव्यता संसाधनों से नहीं बल्कि लोगों की सहभागिता से घटित होती है। अडानी या अम्बानी ऐसे अनेकों मंदिर बना सकते थे। पर इनसे सहयोग नहीं लिए गए? एक एक शिला समाज से आया और समाज का यह मंदिर बनकर खड़ा हो गया। समाज का कथित अंत्यज कामेश्वर मंदिर का शिलान्यास करते हैं। उमा, कल्याण और कटियार जैसे पिछड़े नेता इसकी अगुआयी करते हैं।
भाजपा की मंशा जो रही हो पर राम की विरासत बचाने की भूमिका जिनके कंधे पर थी वही कन्धा राम मंदिर आंदोलन में भी नजर आया। अयोध्या की इस भीड़ से हिंदुत्व को जिन्दा रखने की अपेक्षा मेरी भी नहीं है।
पर इस जमात को यह अहसास हो गया कि भारत को अगर हर स्तर पर सजग समर्थ सबल होना है तो राम के प्रिय वनवासी गिरिवासी को आगे आना होगा। मोदी ऐसा नहीं है कि इस आरोप से अवगत नहीं होंगें। मोदी सब जानते हैं क्या यह सच नहीं कि लड़ाई हिन्दू बनाम हिन्दू की हो गई है? कौन गायब हुआ राष्ट्रीय विमर्श से? सच है कि एक गायब कैरेक्टर मुसलमान हीं हैं । पक्ष और विपक्ष दोनों को राम की सन्मति मिल गई है। किसी ने ताला खोला और किसी ने मंदिर बनाया? खेल जारी रहे, मैं भी लिखना जारी रखूँगा। अयोध्या के पीछे और आगे क्या-क्या होना है इसे समझने की जरुरत है। शक्ति और संसाधनों के बल पर कोई महानायक नहीं बनता। यह प्रभु राम सिखाते हैं। मोदी भी जल्दी सीख लें तो बेहतर होगा। आज के जामवंत, सुग्रीब, शबरी सब मोदी का इंतज़ार कर रहे हैं। मोदी इधर तो मुड़कर देखें? हो सकता है राहुल के बयान से इनकी राजनीति रूपांतरित हो जाए?