तनवीर जाफ़री
हरियाणा विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणामों ने पूरे देश के न केवल सभी प्रमुख एजेंसीज़ द्वारा किये गए एक्ज़िट पोल्स को बुरी तरह झुठला दिया बल्कि बड़े-बड़े राजनैतिक विश्लेषकों को भी हैरानी में डाल दिया। मज़े की बात तो यह कि केवल कांग्रेस पार्टी ही हरियाणा में सत्ता में वापसी की उमीदों को लेकर गदगद नहीं थी बल्कि स्वयं भाजपा को भी यह एहसास था कि किसान आंदोलन, अग्निवीर योजना व पहलवानों जैसे ज्वलंत मुद्दे उठने के बाद राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में इनके अलावा भाजपा को दस वर्ष की सत्ता विरोधी लहर का भी सामना करना पड़ सकता है। इसी संभावना के तहत भाजपा ने लगभग 35 प्रतिशत वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए थे। टिकट कटने वालों में कई मंत्री भी शामिल थे। इस क़वायद के बावजूद 12 में से 9 मंत्री चुनाव में पराजित हो गये। हद तो यह है कि मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी और डिप्टी स्पीकर रणबीर सिंह गंगवा की सीटों को भी बदल दिया गया था। इन सबके बावजूद नायब सैनी और अनिल विज जैसे नेताओं को भी मामूली मतों से ही जीत हासिल हुई। राज्य में 10 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां बीजेपी की जीत का अंतर 5 हज़ार से भी कम है।
आठ अक्टूबर को जब सुबह मतगणना शुरू हुई उस समय एग्ज़िट पोल द्वारा घोषित पूर्वानुमानों के अनुरूप ही कांग्रेस की भारी जीत के रुझान सामने आने लगे। बताया गया कि बैलट पेपर की गिनती में कांग्रेस तेज़ी से आगे जा रही थी परन्तु जैसे ही ई वी एम के मतों की गिनती शुरू हुई आंकड़ों ने उसी तेज़ी से करवट लेना शुरू कर दिया। उसी समय पूरे देश के सोशल मीडिया पर यह संदेह ज़ाहिर किया जाने लगा कि क्या भाजपा द्वारा फिर ‘खेला’ कर दिया गया? और शाम होते-होते भाजपा राज्य की कुल 90 विधानसभा सीटों में से 48 पर जीत दर्ज करने व ज़रूरी बहुमत हासिल करने की ओर बढ़ चली। जबकि एक्ज़िट पोल के अनुसार 50 से 65 सीटें जीतने की उम्मीद रखने वाली कांग्रेस को मात्र 37 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। इन चुनाव परिणामों ने निश्चित रूप से सभी को हैरान इसलिये भी कर दिया क्योंकि राज्य से भाजपा की हरियाणा में सत्ता से बिदाई की रिपोर्ट्स केवल मीडिया आधारित नहीं थी बल्कि स्वयं अनेक सरकारी एजेंसीज़ ने भी यही फ़ीड बैक दिया था। इसीलिये भाजपा के पक्ष में आये इन अप्रत्याशित परिणामों को लेकर संदेह पैदा होना स्वभाविक भी था। और इसतरह निशाने पर एक बार फिर ई वी एम आ गयी। कांग्रेस ने सीधा आरोप लगाया कि हरियाणा चुनाव में कई जगह ई वी एम को हैक किया गया है। यह सवाल भी उठा कि अनेक ई वी एम इंडिकेटर में बैटरी की मात्रा 90 व 95 % तक दिखा रही थी जबकि मतदान के अंतिम समय में प्रायः ई वी एम की बैटरी चार्जिंग की मात्रा 60 से 70% के बीच या इससे भी कम ही हुआ करती है। कांग्रेस का आरोप है कि जहां-जहां ई वी एम में बैटरी कम थी उनमें प्रायः कांग्रेस को बढ़त मिली है। इस आरोप का सीधा अर्थ है कि ई वी एम को बदल दिया गया। कांग्रेस द्वारा 20 सीटों पर इसतरह की गड़बड़ी होने की शिकायत दर्ज की गई है।
सवाल यह है कि जब राहुल गांधी ने 17 मार्च को भारत जोड़ो न्याय यात्रा के समापन के समय मुंबई में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा था कि ‘राजा की आत्मा ईवीएम में है’, उस समय केवल राहुल गांधी ही नहीं बल्कि एम के स्टालिन व फ़ारूक़ अब्दुल्ला जैसे अनेक बड़े नेताओं ने भी ईवीएम का मुद्दा उठाया था। और उस समय सभी का ई वी एम को लेकर एक ही स्वर था कि यदि उनकी सरकार आएगी तो वे ईवीएम को हटा देंगे। सवाल यह है कि आज जबकि हरियाणा के साथ-साथ जम्मू कश्मीर विधान सभा के भी चुनाव परिणाम आये हैं। और जम्मू कश्मीर में फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नेशनल कॉफ़्रेंस व कांग्रेस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला जबकि हरियाणा में भाजपा को जीत मिली। ऐसे में यदि कांग्रेस के नेता हरियाणा में ई वी एम की कार्यप्रणाली में त्रुटियां निकाल रहे हैं तो फिर जम्मू कश्मीर विधानसभा परिणामों से सहमत क्यों ? पिछले लोकसभा चुनावों में इण्डिया गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन किया। उत्तर प्रदेश व हरियाणा में भी अच्छा प्रदर्शन रहा। उस समय भी किसी ने ई वी एम पर इतना दोष नहीं मढ़ा। कर्नाटक में जीते तो भी ई वी एम ठीक थी ?
और इन सबसे बड़ी बात यह कि जब विपक्षी दलों के नेता ई वी एम को ही ग़लत बताते हैं फिर आख़िर अब तक पूरे विपक्ष ने मिलकर ई वी एम के विरुद्ध संयुक्त रूप से कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं किया? यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ वकीलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा चलाये जा रहे ई वी एम विरोधी आंदोलन का भी किसी राजनैतिक दल ने खुलकर साथ नहीं दिया? यदि वास्तव में ई वी एम निष्पक्ष चुनाव प्रभावित करने की क्षमता रखती है तो निश्चित रूप से यह लोकतंत्र के लिये घातक है। सभी राजनैतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर इसका विरोध करना चाहिये। यहाँ तक कि यदि सत्ता पक्ष के भी कई वरिष्ठ नेता, तकनीकी एक्सपर्ट और पूरा विपक्ष ई वी एम से चुनाव नहीं चाहता तो इसके द्वारा होने वाले चुनावों का बहिष्कार तक किया जाना चाहिये। क्योंकि सच तो यह है कि ई वी एम पर शुरुआती संदेह की ऊँगली तो भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी व सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा ही उठाई गयी थी। वैसे भी इसकी संदिग्धता को लेकर इसलिये भी सवाल उठते रहते हैं कि आख़िर दुनिया के अनेक आधुनिक देशों ने इसका प्रचलन अपने देशों में क्यों बंद कर दिया? और आधुनिक होने के बावजूद ऐसे देशों में आज भी चुनाव बैलट पेपर द्वारा ही क्यों कराये जाते हैं? ई वी एम की संदिग्धता को लेकर स्थिति स्पष्ट,पारदर्शी व सर्वस्वीकार्य होनी चाहिये। बेईमानी पर आधारित लोकतंत्र वास्तविक लोकतंत्र का परिचायक नहीं हो सकता।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)