आजादी और गुलामी

समाज को यथास्थिति में फँसाने की कोशिश

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डॉ योगेन्द्र
आजादी हर एक को पसंद है। मनुष्य चाहता है कि वह आजाद रहे। समाज में रहते हुए क्या पूर्ण आजादी संभव है? हर समाज ने अलग-अलग नियम बनाये हैं। उन नियमों और परंपराओं के तहत उसे जीना पड़ता है। अगर वे नियमों और परंपराओं के तहत जी रहे हैं तो पूर्ण आजादी कैसे संभव है? हम किसी देश में रहते हैं। वहाँ एक संविधान है, कानून कायदे हैं, उन्हें चुनौती देना संभव नहीं होता। जो चुनौती देता है, वह सजा के हकदार होता है। हालत तो यह है कि देश में एक आम नागरिक के लिए कितने कानून बने हुए हैं, उन्हें नहीं पता। समाज से विद्रोह अघोरी साधु करते हैं। वे समाज के नियमों से उलट काम करते हैं। वे मरे हुए मनुष्य का मांस खाते हैं, मरी हुई लाश के साथ संभोग करते हैं, श्मशान में साधना करते हैं, चिता की राख को शरीर में लपेटते हैं, शराब पीते हैं। वे खोपड़ियों में खाना खाते हैं। साधना के तरीके भी सर्वथा अलग है। ऐसा करने के बाद भी क्या उन्हें पूर्ण स्वतंत्र कहा जा सकता है? उनकी साधना उन्हें कितनी मुक्त करती है, यह नहीं पता। यह साधना और मुक्ति व्यक्तिगत होती है। आम लोग उनसे डरते हैं और उनकी साधना से निकले फलाफल से आम लोग लाभान्वित नहीं होते। दरअसल अघोरी साधु भी समाज के बंधनों से मुक्त होकर एक दूसरे बंधन में बंध जाते हैं। संसार में अनेक संत हुए, जिन्होंने वर्षों तक एकांत में साधना की। उन्हें अपनी साधना से कुछ न कुछ लाभ हुआ होगा, मगर समाज के लिए वे बहुत लाभदायक नहीं हुए।
समाज में आजादी संभव है? कुछ लोग अंग्रेजों से मुक्ति चाहते थे तो उसी वक्त कुछ लोग जाति से मुक्ति चाहते थे। औपनिवेशिक गुलामी और जातिवाद की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई से अलग लड़ाई थी और वह यह थी कि वे न तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ेंगे और न जाति के खिलाफ। वे इन दोनों लड़ाइयों से डरे हुए लोग थे, इसलिए इन्होंने समाज को यथास्थिति में फँसाने की कोशिश की। वे चाहते थे कि जाति वर्चस्व कायम रहे, इसलिए इन लोगों ने उन दोनों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वे अंग्रेजों के साथ हुए और संप्रदाय संगठन में लग गये। उन्होंने अपने संगठन में राष्ट्रीय शब्द लगाया, जबकि वे एक संप्रदाय को इकट्ठा करने की बात करते रहे। राजनीति षड्यंत्रों का अड्डा रहा है। झूठ, हिंसा और बेईमानी उनके हथियार रहे हैं। आजादी के बाद उम्मीद थी कि एक आदर्श राज्य बनेगा, लेकिन धीरे-धीरे कुवृत्तियों में लिपटता चला गया। देश की अंग्रेजों से मुक्ति मिली, लेकिन जाति और संप्रदाय से मुक्ति नहीं मिली। आज जब आजादी की लड़ाई को झुठलाया गया और उस पर सरेआम हमला हुआ, तब भी उसकी प्रतिक्रिया जोरदार नहीं हुई। सत्ता के लिए गद्दारी होती रही है। आज भी हो रही है। जो लोग या जिन लोगों के पूर्वज आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे, वे लोग आजादी के खिलाफ बोलें, यह स्वाभाविक है, लेकिन जिनके पूर्वज आजादी की लड़ाई में शामिल थे, वे वैसे लोगों का हाथ थामे रहें, यह बहुत खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। सत्ता के लिए गुलामी करना या बँधुआ मजदूर बन जाना, इनकी आत्मा के क्षरण की निशानी है। इतिहास बहुत क्रूर होता है। व्यक्ति के कर्मों को छान कर इतिहास में दर्ज किया जाता है। गुलाम वंश को इतिहास आजाद वंश नहीं बना देता।

 

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डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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