हरसिंगार झरते हैं झर-झर

कोई श्रृंगार और हरसिंगार की बात करे

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डॉ योगेन्द्र
मैंने जीवन में दो हरसिंगार के पौधे लगाए। एक जहां मेरा क्वार्टर था और दूसरे हिन्दी विभाग में। क्वार्टर के हरसिंगार को बाढ़ ने लील लिया। विभाग का हरसिंगार कायम है। कायम ही नहीं, हजारों सफेद फूल खिलते हैं, झड़ते हैं- हरसिंगार झरते हैं झर झर। महादेवी उदास चेतना की कवयित्री हैं। वे लिखती हैं – ‘हरसिंगार झरते हैं झर झर/ आज नयन आते क्यों भर-भर?‘ यों यह कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है – ‘पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन/ आज नयन आते क्यों भर-भर?’ हरसिंगार के फूल झड़ते हैं और आंखों से आंसू। आंसू हरसिंगार ही होते हैं। मन जब मनुष्य रूप धरता है तो आंसू आते हैं। वैसे आंसू के रूप बहुत से हैं। बचपन में पिता के डंडों के बाद जो आंसू आते हैं और फिर गहरी पीड़ा से जो बरबस आंसू निकल आते हैं, दोनों में अंतर तो हैं ही। बचपन के आंसू गालों से बह कर नीचे उतरते हैं और जब दूसरे गलियों में पहुंचते हैं, तो दोस्तों के साथ भूला दिये जाते हैं। न पिता का डंडा याद रहता है, न आंसू। गलियों में ये आंसू घुल जाते हैं, ठहाकों में। हां, गहरी पीड़ा के आंसू भूले नहीं भूलाये जाते। महादेवी कभी नहीं भूली। गोपालदास नीरज ने लिखा है – मैं पीड़ा का राजकुंवर हूं, तुम शहज़ादी रूपनगर की /मीलों जहां न पता खुशी का /मैं उस आंगन का इकलौता /तुम उस घर की कली /जहां नित होंठ करें गीतों का न्योता /मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी। महादेवी पीड़ा की राजकुमारी थी, जिसे समझने या कहें उनकी संवेदना में बहने वाला कोई राजकुमार नहीं मिला।

महादेवी खुद लिखती हैं – ‘शशि दर्पण में देख-देख/ मैंने सुलझाये तिमिर केश/ गूंथे चुन तारक-पारिजात/ अवगुण्ठन कर किरणें अशेष; / क्यों आज रिझा पाया उसको/ मेरा अभिनव श्रृंगार नहीं? ‘कोई है, जो रीझ नहीं रहा। तमाम श्रृंगार के बाद भी। आज महादेवी की याद क्यों आई, कह नहीं सकता। सुबह टहलने गया था। बारिश के बाद धूल फिलहाल धरती से चिपकी है। हल्की-हल्की धूप है। बेतहाशा ट्रकें हैं। जहां तहां कीचड़ और पानी है। ऐसा कुछ नहीं है कि कोई श्रृंगार और हरसिंगार की बात करे। महादेवी एक कविता में पूछती हैं – ‘कहां से आये बादल काले? कजरारे मतवाले! ‘फिर कहती हैं कि यह जग तो शूल भरा है, सभी दिशाएं झुलसीं हुई हैं – निष्प्रभ। फिर ये बादल जो करूणा के रखवाले हैं, सागर में क्या सो न सके? शायद कुछ वैसे ही, मन में करूणा के जो बादल हैं, वे सचेत कर कहते हैं – मधुर-मधुर मेरे दीपक जल। दीपक का अस्तित्व जलने में है। जो जला नहीं, वह दीपक नहीं बना। इसलिए जीवन को जला, तपा, तब वह जीवन है। धूल है, धक्कड़ है, क्या अंतर पड़ता है! कल्पना के बादलों पर उड़ता चल।‌
बारिश खत्म हो रही है। गंगा के पास ही रह रहा हूं। गंगा की कछार में कास खिलते हैं। सफेद समुद्र बन जाता है। जल मंथर गति से प्रवाहित होता है। सुमित्रानंदन पंत ने एक कविता लिखी है – नौका विहार। उसकी कुछ पंक्तियां हैं –

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर।
सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर
तिर रही, खोल पालों के पर।
निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।

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