ब्रह्मानंद ठाकुर
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसे हर्गिज रोका नहीं जा सकता। लेकिन वैसा परिवर्तन, जिससे मौलिक पहचान ही नष्ट हो जाए, स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। दुखद यह है कि परिवर्तन के इस दौर में गांव की जो खास पहचान थी, परम्परा, खान-पान, शिष्टाचार, रीति-रिवाज, पारस्परिक एकता, आपसी सद्भाव और भाईचारा सब लुप्त हो चुका है।
बारात सिकुड़ कर तीन दिनों की जगह तीन घंटे की हो गई। पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव मे पूंजी निवेश होने लगा। हर गाँव-गली मे कई-कई पार्टियों के नेता हुए, जो ब्लॉक, अंचल और थाना तक फनफनाने लगे। मठ्ठा की जगह चाय ने ले ली। लाठी की जगह तमंचा और लंगोटी की जगह जाघिया ने लिया। धोती और पायजामा को बेल्बाट्म, फिर जिंस पैंट ने किया विस्थापित। बैलों वाली दौनी के बदले आया थ्रेसर और ओखल मुसळ के बदले धान का स्पेलर मशीन। दलान हुआ गायब और कमरे मे भगवान की तस्वीर के साथ सज गई फिल्मी तारिकाओं की तस्वीर। वकालत और मास्टरी के बाद ठेकेदारी और दलाली का पेशा सबसे सम्मानित पेशा हो गया। कलकत्ते की तर्ज पर शुरू हुई दुर्गा पूजा, जिसमे भक्त फिल्मी धूनो पर गीत गा कर देवी की स्तुति करते हैं। इसी तर्ज पर शुरू हुआ देवी जागरण। चैतावर, बारहमासा, पराती, आल्हा, होली गीत,.कहां तक गिनायें, सब अलोपित हो गया। माताएं लोरी गाना भूल गई, दादी-नानी अब बच्चों को किस्से नहीं सुनाती। आम के बगीचे में और जामुन वृक्ष के नीचे बच्चों की किलकारियां नहीं गूंजती। क्योंकि आम में मंजर आने से पहले ही बगीचे बिक जाते है। गांव में कभी जाड़े के मौसम में घूरा (अलाव) की परम्परा थी। शाम होते ही घूरे के पास टोले के लोग बैठते। अपना सुख-दुख बतियाते। खेती-पथाडी, माल-मवेशी की चर्चा होती। अब ये सारी चीजें इतिहास बन गई। दालान और बैठकी गायब हो गई। अब तो शाम ढलते ही लोग घरों मैं कैद हो जा रहे हैं। टीभी के ईर्द गीर्द। गांव अब ग्लोबल हो गया है। तेजी से हुए इस बदलाव में गांव की परस्पावलम्बित भाव और मौलिक संस्कृति कब विलुप्त हो गई, पता ही नहीं चला। पिता, पापा डैडी और डैड हो गये। मां मम्मी में बदल गई और चाची हो गई आंटी। मुझे याद है, तब गांव के सभी पुरुष बाबा, काका, चाचा और भाई होते थे और महिलाएं दादी, चाची, भाभी, बहिन और फुआ हुआ करती थी। रिश्ते के आधार पर नाम के आगे चाचा, बाबा, काका और भाई का सम्बोधन जुड़ा होता था। ऐसे सम्बोधनों से एक अपनापन का बोध होता था। अब तो नाम के बाद ‘जी’ लगाकर अपने से बड़ों को सम्बोधित किया जाने लगा है। तब पूरा गांव एक परिवार सा लगता था। सुख-दुख में एक दूसरे का सहभागी। गांव का कोई भी आदमी जब अपने गांव की किसी बेटी की ससुराल जाता तो वहां उसका अपने खास रिश्तेदार -सा आदर भाव होता था। सम्बंधों का यह बिखराव हमारी संस्कृति को काफी हद तक प्रभावित किया है। हमारी एकजुटता नष्ट हुई है। जिस परम्परा, रीति-रिवाज और आपसी सद्भाव के कारण गांव की विशेष पहचान थी, वह सब जड़मूल से नष्ट हो गयी। आज भीड़ में सब अपने को अकेला महसूस करने लगा है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)