डॉ योगेन्द्र
हवा में छठ की धमक है। दूकानों में शारदा सिन्हा के स्वर गूंज रहे हैं। यों लोक स्वर साम्राज्ञी खुद नहीं रही। जाने की तिथि उन्होंने चुनी भी छठ की। जिसने उन्हें शिखर पर पहुंचाया, उसमें वे विलीन हो गयी। छठ षष्ठी का बिगड़ा हुआ रूप है। अमावस्या के बाद के छह दिन में छठ। षष्ठी से छठ हुआ, तो फिर यह मैया कैसे हो गया। षष्ठी तो दिन का नाम है। क्या इस पर्व में दिन की पूजा होती है। यह पर्व मुख्यतः बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखंड में मनाया जाता है। भारत के इस पूर्वी प्रदेश के रूप स्त्रैण है। काली यहीं है, दुर्गा भी। शायद इसलिए छठ यहां मैया हो जाती है। भारत को मां बनाने वाले लोग भी इधर के ही रहे होंगे। भारत को मां में निहारने की बलवती इच्छा भी इसी प्रदेश में पैदा ली होगी। हिन्दुस्तान के पीछे शायद सिन्धु नदी है। सिन्धु के आसपास का रूप शायद पुरूष प्रधान है। इसलिए हिन्दुस्तान पुरूष रह गया। जबकि सिन्धु नदी है। खैर, इतिहास में बहुत सारी परिघटनाएं हैं। फिलहाल छठ। अब छठ का
एक वैश्विक रूप है। भारत के ज्यादातर कोनों में छठ मनाया जा रहा है। फ़ेसबुक पर एक मित्र की पुकार मैंने पढ़ी – छठ स्त्री विरोधी पर्व है, इसे न मनाएं। शायद उन्होंने इसलिए लिखा कि स्त्रियां ही इसे करती हैं और तमाम तरह के कष्ट परबैतनी सहती हैं। मुझे यह पर्व मोहता है। बहुत ही सावधानी और पवित्रता के साथ इसे संपादित किया जाता है। पुरूष को चीखते चिल्लाते मैंने नहीं देखा, न सुना। स्त्रियों को प्रताड़ित करने का भाव इसमें नहीं है।
वैसे तो इसके पीछे बहुत सी धार्मिक कथाएं हैं। मगर मैं इसमें इतिफाक नहीं रखता। ये सब धार्मिक कथाएं अपने हिसाब से जोड़ ली गईं हैं। मेरे घर में पहले दादी छठ करती थी। फिर भाभी ने शुरू किया। दादी सूप क्यों उठाती थी, पता नहीं। भाभी के बारे में पता है। दरअसल एक बार बड़े भाई को बड़ी चेचक हुई। देह पर बड़े-बड़े फोड़े। बचने की उम्मीद नहीं। मां ने छठ मैया से प्रार्थना की। सूप कबूल कर लिया। दादी नहीं रही तो मां ने कहा कि मुझसे इतना सबकुछ नहीं होगा। तब भाभी यह पर्व करने लगी। अब भाभी भी नहीं है। पर्व का टोटा पड़ गया है। यह पर्व होता था तो सभी इक्कट्ठे होते थे। घर में चहल-पहल भी होती थी। बहुत से घरों के खुशियों के स्रोत यों ही सूख जाते हैं। पहले छठ पर्व में परबैतनी तो दो तीन तक अपार कष्ट में रहती ही थी। बच्चे उससे कम कष्ट में नहीं रहते थे। पूरियां उन्हें पुकारती थीं। सेव और ईख तक उसे कम दुखी नहीं करता था। आंखों की लोर गालों पर बार-बार सूख जाते। अरग की अंतिम सुबह में उसे सूरज पर कम गुस्सा नहीं होता। परबैतनी पानी में थर-थर कांप रही है और सूरज महराज उग ही नहीं रहे हैं। अगराते बगराते जब उगे भी तो पंडित जी गायब हैं। बच्चे पंडित जी को ढूंढ रहे हैं। पंडित जी किसी और तालाब और अहरे पर हैं। क्या गजब मचा रहती थी चेतना में। अब तो सबकुछ उपलब्ध है। बच्चे भी होशियार हो गये हैं। ठंड भी गायब हो गई है, इसलिए सूरज भी समय पर उग रहे हैं। पंडितों की संख्या में भी अभूतपूर्व इजाफा हुआ है। पर्व में चमक भी बढ़ गई है। दीवाली के पटाखे अब भी छूट रहे हैं।
वह छठ अच्छा था या यह छठ? मूल्यांकन बेकार है। अभावों में भावों की कमी नहीं रहती और जब सबकुछ हासिल है, तो वस्तुओं की कोई कमी नहीं रहती।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)