डॉ योगेन्द्र
क्या सबकुछ राजनीति में ही निहित है? राजनीति नहीं तो कुछ नहीं। न समाज, न संस्कृति, न और कुछ? शिक्षा तो राजनीति के शिकार है। जबकि शिक्षा को ही राजनीति का मार्गदर्शक होना चाहिए। लेकिन वह मार्गदर्शक कैसे होगी? ज़रा उसकी हालत देखिए।
मुझे 2017 ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय में प्रॉक्टर बनाया और विश्वविद्यालय का परीक्षा प्रभारी भी। उस वक्त परीक्षा विभाग में हर दिन पेंडिंग रिजल्ट और परीक्षा को लेकर हंगामे हो रहे थे। कुलपति को किसी ने सुझाया कि अगर आप शांति से अपना समय गुजारना चाहते हैं तो परीक्षा प्रभारी मुझे बना दिया जाय। कुलपति ने मुझे बुलाया। रात के ग्यारह बज रहे थे। उन्होंने कहा कि परीक्षा विभाग सँभाल दीजिए। मैंने कहा कि एक शर्त पर। वह यह कि परीक्षा विभाग में आप हस्तक्षेप नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि ठीक है। मैंने विश्वविद्यालय में योगदान दिया। जैसे ही खबर फैली कि मुझे परीक्षा प्रभारी बनाया गया है। मेरे कार्यालय छात्र छात्राओं से भर गया। उनके तरह-तरह की समस्याएँ थीं। उनमें एक समस्या विचित्र थी। लगभग ग्यारह सौ छात्र छात्राएँ बीए / बीएससी उत्तीर्ण थे ,लेकिन उन्हें सर्टिफिकेट नहीं दिया जा रहा था। वजह यह थी कि उनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ था। रजिस्ट्रेशन नहीं होने का मतलब था कि वे विश्वविद्यालय के छात्र ही नहीं थे। जब वे छात्र नहीं थे, तो उसने परीक्षा फार्म कैसे भरा? कॉलेज से अगर ग़लत परीक्षा फार्म भर कर आया था तो फिर विश्वविद्यालय ने रोका क्यों नहीं? इसका मतलब था कि विश्वविद्यालय और कॉलेज दोनों मिला हुआ था। मैंने पूछताछ शुरू की। संबंधित कॉलेज के प्रधानाचार्य को बुलाया। वे उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे। वे पूरी कथा जानते थे, क्योंकि उनकी मिलीभगत से सब हुआ था। मैंने उन्हें डाँटा और हिदायत दी कि यही रवैया रहा तो कॉलेज का संबंधों ख़त्म कर दिया जायेगा। सभी बच्चों का रजिस्ट्रेशन करवाइए। उन्होंने कहा कि सर, गलती तो हो गयी है, लेकिन बिना विश्वविद्यालय की सहमति के अब रजिस्ट्रेशन संभव नहीं है। विश्वविद्यालय के परीक्षा विभाग के अधिकारी और कर्मचारियों की बैठक बुलायी और कहा कि चाहे जैसे भी बच्चों के साथ खिलवाड़ मत कीजिए। सभी का रजिस्ट्रेशन करवाइए। अधिकारी ने कहा कि यह लीगल नहीं होगा। मैंने कहा कि अगर यह लीगल नहीं है तो बिना रजिस्ट्रेशन के परीक्षा दिलवाना लीगल था? ठीक है, इससे संबंधित जितने अधिकारी और कर्मचारी हैं, उन सबको सस्पेंड किया जाता है।
मैं झल्ला कर बैठक से चला आया। इधर छात्र छात्राएँ हंगामा कर रहे थे। मैंने उन्हें कहा कि चाहे जैसे भी हो, तुम लोगों को हर हाल में सर्टिफिकेट मिलेगा । तीन चार दिन का समय दो। मैंने कुलपति को सूचना दी और कहा कि परीक्षा बोर्ड की बैठक बुलाइए और बोर्ड से इन लड़कों के लिए रजिस्ट्रेशन से संबंधित फ़ैसला लीजिए। बैठक बुलाई गई। परीक्षा बोर्ड के सभापति कुलपति होते हैं और सभी संकाय के डीन सदस्य होते हैं। परीक्षा नियंत्रक सचिव के रूप में काम करते हैं। रजिस्ट्रेशन संबंधी प्रस्ताव पर डीन में सहमति नहीं थी। कोई ग़लत, कोई सही कह रहे थे। मैंने कहा कि ग्यारह सौ छात्रों के भविष्य का सवाल है। वे परीक्षा विभाग के बरामदे पर हंगामा करते रहते हैं। “खेत खाये गदहा, मार खाये जोलहा” की हालत मत कीजिए। आख़िर प्रस्ताव पास हुआ और सभी छात्रों का रजिस्ट्रेशन हुआ। शिक्षा की दशा यह है। यहाँ तो डिग्री के लिए मारा मारी है। पढ़ाई किस चिड़िया का नाम है, उसे कई कॉलेज जानते नहीं। ऐसी शिक्षा राजनीति का मार्गदर्शक क्या होगी? वह तो खुद अंधेरे में ऊब चुभ कर रही है।
राजनीति में सत्ता है। सत्ता हर चीज़ में दख़लंदाज़ी कर सकती है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षक थे। उनके जन्म दिन के अवसर पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। मेरे मन सवाल आता है कि वे शिक्षक का पद छोड़ कर राष्ट्रपति बने। यानी शिक्षक से राष्ट्रपति का पद बड़ा था। अगर वे राष्ट्रपति का पद छोड़ कर शिक्षक बनते तो फिर यह साबित होता कि शिक्षक का पद बड़ा होता है। जो भी हो। शिक्षा व्यवस्था में घुन लग गई है। इसमें न नीयत है, न नीति। न लोकाचार है, न सदाचार है। वह तो छात्र-छात्राओं को मानवीय तक नहीं बना रही, तो यह देश का मार्गदर्शन कैसे करेगी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)