छात्रों का राजनीति में शामिल होना जरूरी
राजसत्ता छात्रों को राजनीति से दुर करके अपनी जनविरोधी नीतियों को ही बनाए रखना चाहती है
ब्रह्मानंद ठाकुर
“जब वक्त पड़ा गुलिस्तां को, खूं मैंने दिया, अब बहार आई तो कहते, तेरा काम नहीं’। यह कथन उन राजनेताओं के लिए बिल्कुल सटीक है जो छात्र-युवाओं की कुर्बानी के बल पर सत्ता हासिल करने के बाद उनको राजनीति से अलग रहने की नसीहत देते हैं। उनका तर्क होता है, अभी पढ़ो-लिखो, अपना कैरियर बनाओ। राजनीति करने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है। ऐसा कहते हुए वे शायद भूल जाते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में जीने का अर्थ हीं है कि सरकार द्वारा बनाए गये कायदे-कानून का एक नागरिक की हैसियत से पालन करना। अपने अधिकारों का उपयोग करना। राजनीति से ही एक सामाजिक व्यवस्था संचालित हो रही है।
आईन-कानून, खेती-बाड़ी, कोर्ट-कचहरी, दुकान-बाजार, शिक्षा, साहित्य-संस्कृति, यहां तक कि पारिवारिक और सामाजिक जीवन सब कुछ राजनीति के द्वारा ही निर्धारित और संचालित होता है। संक्षेप में कहें तो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक राजनीति ही निर्देशित और नियंत्रित करती है। हर सामजिक प्राणी किसी न किसी सामाजिक क्रियाओं से जुड़ा होता है। समाज में जो कुछ भी हो रहा होता है उसे मान लेना या अस्वीकार करना भी एक तरह की राजनीति हीं है। इसी तरह छात्रों का छात्र जीवन भी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं है। यह हो भी नहीं सकता।
शिक्षा नीति, पाठ्यक्रम, शिक्षण व्यवस्था सब कुछ सरकार ही निर्धारित करती है। सरकार का मायने हीं है एक ताकतवर राजनीतिक संस्था। सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों को मान लेना जैसी राजनीति है, वैसे ही उसका विरोध भी राजनीति हीं है। आये दिनों शिक्षण शुल्क में अप्रत्याशित वृद्धि, सरकार की वर्तमान गैर धर्म निरपेक्ष, अवैज्ञानिक शिक्षानीति, जनवादी आंदोलनों के दमन आदि के विरोध में छात्र युवा जब आंदोलन करते हैं तो उन्हें सरकारी तंत्र उच्छृंखल और अनुशासनहीन करार देता है। जेलों में डाल दिया जाता है। इन्हें राजनीति से दूर रहने की सलाह दी जाती है। कारण स्पष्ट है कि राजसत्ता ऐसा कर के अपनी जनविरोधी नीतियों को ही बनाए रखना चाहती है। यह भी राजनीति हीं है, जो शोषक वर्ग के हित में है।
ताज्जुब है कि आज के राजनेता युवकों की अश्लील हरकतों पर तो मुंह नहीं खोलते। उन्हें अच्छा इंसान बनने की नसीहत नहीं देते मगर अनीति, अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न जैसी घटनाओं के विरोध को उच्छृंखलता करार देते हैं। इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है। इतिहास साक्षी है। हर युग में पतनशील समाज-व्यवस्था को गर्त से निकाल कर युगानुरूप नूतन समाज व्यवस्था के निर्माण में छात्र-युवा शक्ति की ही भूमिका रही है। जिस समाज में हम अभी रह रहे हैं, वह बड़ी तेजी से पत्नोन्मुख हो रहा है। मानवीय मूल्यबोध में तेजी से गिरावट आ रही है। नैतिक और सांस्कृतिक पतन चरम पर है। शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार से आमजन त्राहि-त्राहि कर रहा है। महिलाओं की अस्मिता खतरे में है। पूंजीवादी राजसत्ता को अपने वर्ग हित में इसी सड़ी-गली व्यवस्था को बनाए रखने की जरूरत है। वह छात्र-युवा शक्ति को ऊंची नीति-नैतिकता और मूल्यबोध से लगभग लैस होकर राजनीति में आने देना नहीं चाहती। इसलिए व्यापक जन हित में, नूतन समाज व्यवस्था के निर्माण हेतु छात्रों का राजनीति में आना जरूरी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)