डॉ योगेन्द्र
कश्मीर पर अशोक कुमार पाण्डेय की एक कविता की पंक्तियां हैं –
यह फलों के पकने का समय है
हरियाए दरख़्तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट
ख़ूबानियों में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे
और कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और
क्या फ़र्क़ पड़ता है—दिल्ली हो या लाहौर!
कश्मीर देश को सिर्फ सेब, अखरोट और खूबानियाँ ही नहीं बाँटता, वह अपना सौंदर्य बाँटता है। यों तो हमारे देश की प्रकृति ही बहुरंगी है। अगर नदियों की कल-कल है, तो समुद्र की गर्जना भी है। पहाड़ों और घाटियों से भरा हमारा देश तो अद्भुत है ही, उसमें भी कश्मीर तो और भी बेमिसाल है। इसे धरती का जन्नत कहते हैं। सुनते हैं कि जम्मू-कश्मीर को शरद ऋतु बहुत भाता है। इस ऋतु में प्रकृति लाल, नारंगी और पीली हो जाती है। कश्मीर ने इस मौसम का नाम ही अलग से रख दिया है। आख़िर अपने मौसम पर कश्मीर क्यों न इतराये? वह क्यों नहीं इसका नया नाम रखे, नया रूप गढ़े? इस मौसम का नया नाम रखा है- हरूद। किसी को संतान होता है तो उसके नाम- रूप के लिए न जाने क्या-क्या करता है, तो फिर करोड़ों संतानों के लिए कश्मीर क्यों न इतराये! मज़ा यह है कि शरद ऋतु में पेड़ के पत्ते भी फूल नज़र आते हैं, ख़ासकर मैपल पेड़ के पत्ते। मुगल गार्डन, शालीमार बाग, परीमहल, चश्माशाही, नसीमबाग, चिनारबाग मैपल के पत्तों से रंगीन हो जाते हैं। इस सुंदरता का वैभव देखने पर्यटक तो आते ही हैं। स्थानीय नागरिक भी घरों से निकल आते हैं, बेमिसाल नजारा देखने। आदमी सिर्फ़ रोटी पर ही नहीं रूकता। उसे आगे जाना है। अदम्य सौंदर्य की लालसा। बेमिसाल फ़िल्म का गाना है- ‘ये कश्मीर है, कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है/ मौसम बेमिसाल बेनजीर है। ‘ज़मीन से आसमान तक फूलों की गुलिस्ताँ। आये तो जाने की इच्छा नहीं। मैं तो कभी गया नहीं। जब जाने की इच्छा हुई तो वहाँ धड़ाम-धड़ाम हो रहा था।
आदमी भी कितना बेहाया होता है। हम फूल देखते हैं, तोड़ लेते हैं। टहनी में टिकने नहीं देना चाहते। कश्मीर के सौंदर्य को भी खूब चींथा है आततायियों ने। देश आज़ाद हुआ तो बेवक़ूफ़ों की तो कोई कमी नहीं थी। सबकी गिद्ध दृष्टि लगी थी। किसे कौन सा इलाक़ा मिल जाये। पाँच सौ से ज़्यादा रियासतें थीं। वे वर्षों से अंग्रेजों के पाँव चाट कर अपने-अपने इलाक़े में ऐश कर रहे थे। उन्हें लगा कि अंग्रेज जायेंगे तो वे आज़ाद हो जायेंगे। राजनेताओें की भी नज़र थी, लेकिन उसे कोई कैसे देश दे देगा? तो फिर उन्होंने फ़र्ज़ी सिद्धांत गढ़ना शुरू किया। उन्होंने कहा कि हिंदू मुस्लिम दो समुदाय नहीं, दो राष्ट्र हैं। इसलिए साथ नहीं रह सकते। बेवकूफीपूर्ण सिद्धांत था यह। लोग झाँसे में आ गये। कश्मीर तब भी झाँसे में नहीं आया। वह भारत के साथ रहा। रहना तो सिंध भी चाहता था, लेकिन हमारे नेता कम अदूरदर्शी थोड़े थे। सिंध के खान कहते रहे कि हमें भारत में रखो, क्यों शेर के मुँह में धकेल रहे हो, मगर उसकी आवाज़ किसी ने नहीं सुनी। जो भी हो। इतिहास में जो हुआ, हो गया। कम से कम जो है, उसे तो पालो। आँखों पर धर्म का नहीं, इंसान का चश्मा लगाओ। चश्मा का लेंस ठीक करो भाई।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)