अब पूजा-पाठ भी बाजार की गिरफ्त में
शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा के असली मर्म को समझना जरूरी
ब्रह्मानंद ठाकुर
शारदीय नव रात्र प्रारम्भ हो गया है। नौ दिनों तक शक्ति की देवी दुर्गा के नौ रूपों की अराधना होगी। शास्त्रों में दुर्गा के नौ रूप बताए गये हैं — शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंद माता, कात्यायनी, काल रात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। श्रद्धालु नवरात्रि में दुर्गा के इन्हीं नौ रूपों की पूजा करते हैं। पूजा व्यक्ति की आस्था से जुड़ी होती है। यह लोक आस्था का सवाल है। यही लोक आस्था जब आडम्बर बन जाता है तो समाज में विकृतियां पैदा होती हैं। हमारे पर्व त्योहारों को आडम्बरपूर्ण बना देने का पूरा श्रेय बाजारवाद का है।
बाजारवाद काफी पहले हर घर में सेंध लगाकर चुपके-चुपके प्रवेश कर गया। आज वह अपनी कारामात दिखा रहा है। अब दुर्गा पूजा भी इसका अपवाद नहीं रहा। पहले भी शारदीय नवरात्र में शक्ति की अधिष्ठात्री दुर्गा की पूरी धार्मिक निष्ठा के साथ पूजा की जाती थी। कलश स्थापन से लेकर नौवीं तिथि तक घरों में दुर्गा सप्तशती का पाठ होता। हवन किए जाते। पूरा वातावरण भक्तिमय बना रहता था। फिर धीरे-धीरे सर्वग्रासी बाजारवाद ने इस त्योहार को अपनी गिरफ्त में ले लिया। गांव से शहरों तक धराधर पूजा समितियां गठित होने लगी। दुर्गा की प्रतिमा निर्माण से लेकर भव्य और आकर्षक पंडालों के निर्माण उसकी सजावटों में प्रतिस्पर्धा का दौर शुरू हुआ। जैसी पूजा समितियां, वैसा बजट। कहीं सजावट के लिए कोलकाता और बेंगलुरु से कारीगर बुलाए जा रहे हैं तो कहीं कामाख्या से पंडित। हजारों की कौन कहे, लाखों का बजट। पूजन सामग्री बेचने के लिए बाजार सज धज कर तैयार है। बजट की जुगार में पूजा से एक महीना पहले से चंदा उगाही शुरू हो जाती है। गली-मुहल्ले में चंदा वसूलने की बात तो दूर सड़कों पर बांस-बल्ला लगाकर जबरन चंदा वसूली। बीच सड़कों पर पंडाल निर्माण। प्रशासन इसमें करें भी तो क्या करें, व्यापक लोक आस्था का सवाल है।
दुर्गा पूजा का यह उमंग, उत्साह और मंत्रोच्चार आज महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, अन्याय, अत्याचार, बलात्कार, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या जैसी बढ़ती घटनाओं पर खुशी का इजहार और सामाजिक स्वीकृति की मुहर नहीं तो और क्या है? आज आस्था के नाम पर हम जिन देवी-देवताओं की पूजा कर रहे हैं, वे सभी अपने समय के विशिष्ट स्त्री पुरुष थे। तत्कालीन समाज की बेहतरी के लिए अपनी कुर्बानी दी थी। उनसे सीखने की चीज है सिर्फ व्यापक जनहित में कार्य करना।
मां दुर्गा ने भी देवताओं के अनुरोध पर महिषासुर का वध लोकहित में किया था। आज महिलाओं की अस्मिता और उनके आत्मसम्मान पर लगातार हमले हो रहे हैं। उन्हें इंसान के बदले एक वस्तु के रूप में देखा जा रहा है। बलात्कार, दहेज और कन्याभ्रूण हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। और हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तंत्र देवता’ का जाप करते रह गये। ऐसे में शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा के असली मर्म को समझना जरूरी है। अगर पूजा का यही व्यावसायिक रूप चलता रहा तो भविष्य में देशी-विदेशी कम्पनियां भी इस व्यवसाय में पूंजी निवेश करने से बाज नहीं आएंगी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)