डॉ योगेन्द्र
आज भागलपुर में ठंड बहुत है। सुबह टहलने निकला तो सूरज नदारद थे और आसमान से बरसती हल्की फुहियों से भी छोटी बूँदें। कुहरा अलग से। देह में कंपकंपी सी हुई, लेकिन मैं रूका नहीं। हवाई अड्डे की पट्टियों पर चल रहा था तो इक्के-दुक्के लोग थे। अमूमन हवाई अड्डे का यह मैदान मॉर्निंग वाकर से भरा रहता है, लेकिन आज उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है। कल मकर संक्रांति थी। चूड़ा-दही और तिलवा आदि खाने के पूर्व कुंभ को लेकर एक मित्र से बहस हो गई। आज का अख़बार मैंने देखा। खबर छपी है कि साढ़े तीन करोड़ लोगों ने संगम में लगाई डुबकी। चलिए कम से कम प्रवचन देने वाले साधुओं के अनुसार इतने लोगों के पाप कट गये और वे स्वर्ग के दावेदार हो गये। कहा जा रहा है कि चालीस करोड़ लोग कुंभ का स्नान करेंगे। भाँति-भाँति के साधुओं की तस्वीरें छपी हैं। वे अपनी-अपनी करतब दिखा कर संगम की ओर बढ़ रहे थे। त्रिशूल धारियों की कोई कमी नहीं थी और उनके चेहरे पर भी गुस्से की कोई कमी नहीं थी। साधुओं को शांति में भरोसा नहीं है। वे बहुत उग्र नजर आ रहे थे। इतने साधु के बावजूद यह देश परेशान क्यों है? अमेरिका महज सात सौ साल पुराना है और विश्व में उसका डंका बज रहा है और भारत की सांस्कृतिक विरासत तो बहुत पुरानी है तो वह अमेरिका के पिछलग्गू क्यों है?
यह भी कहा जाता है कि हमारे पास वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि की लंबी ज्ञान परंपरा है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि ये सब ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों के रहते और लाखों लाख साधुओं के रहते कोई आदमी इतना श्रेष्ठ कैसे हो गया कि वह स्पर्श और छाया से छूतने लगा? करोड़ों करोड़ लोग इस श्रेणी में कैसे आ गये कि जिनके शरीर छूने मात्र से श्रेष्ठ लोग गंदे होने लगे? यह ज्ञान परंपरा ऐसी अमानवीय सीख कैसे देती रही? ज्ञान को क्या किसी ने बंद कर रखा था? क्या जिसने इसका पाठ किया, उसको इतनी तमीज नहीं आई कि हरि के ही सभी बंदे हैं? अगर यह तमीज नहीं आयी तो उस ज्ञान परंपरा के बारे में सोचना है। उससे सवाल करना है और नयी ज्ञान परंपरा विकसित करना है, जहाँ सभी मनुष्य बराबर हों। कोई इतना श्रेष्ठ न हो जाए कि उसे नफरत और घृणा करने की आदत हो जाये और न कोई ऐसा हो जो घृणा के काबिल हो। घृणा पाप का मूल है। क्या गंगा स्नान कर रहे साधु गण घृणा से मुक्त होंगे या आगे चल कर घृणा फैलायेंगे? सदियों पुरानी घृणा और विद्वेष के कारण ही भारत बार-बार गुलाम हुआ। ऐसे ज्ञान और ज्ञानी के रहते देश गुलाम क्यों हुआ? भारत के कुछ विद्वान कुंभ का यशोगान कर रहे हैं। कई पत्रकार साधुओं से इंटरव्यू ले रहे हैं। उनकी विचित्रताओं का वर्णन कर रहे हैं। मगर अब यह पूछना जरूरी है कि ये विचित्रताएँ मनुष्य के जीवन में क्या बदलाव लाती हैं? एक चैनल पर जादू दिखाया जाता है। लगभग अविश्वसनीय। यह भी एक ज्ञान है। चमत्कार पैदा करता है, मगर मानव की तकलीफों को ऐसा ज्ञान क्या कम कर पाता है? जो ज्ञान सामूहिक नहीं है और जिसके दरवाजे सबके लिए खुले नहीं हैं, उसको कैसे सबसे बेहतरीन परंपरा कही जा सकती है?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)