डॉ योगेन्द्र
गांधी जयंती पर फूल मालाएं तो चढ़ेगी ही। पूरी दुनिया में गांधी ही ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी प्रतिमा पर देश में तो फूल मालाएं चढ़ती ही हैं, विदेशों में भी चढ़ती हैं। जहाँ वे गये नहीं, रहे नहीं, वहाँ के लोग भी गांधी को प्यार करते हैं। गांधी के निंदक भी, खुद को गांधी से मुक्त नहीं कर पाते। इस व्यक्ति में ऐसा कुछ तो था ही, जिसे नाथूराम की गोली मार नहीं सकी। नाथूराम के भाई ने किताब लिखी- ‘गांधी-वध क्यों?’ वे गांधी का वध करते हैं, जैसे जानवरों को किया जाता है। यह उनकी संस्कृति है। वे मानवता का वध करते हैं। उनके शब्दों से उनके काम, स्वभाव का पता चलता है। वे देश में भी पूजे न जा सके। उनके लोग हर वर्ष कुछ न कुछ अकरखन करते हैं, लेकिन गांधी आज तक रोके नहीं जा सके। गांधी एक नदी का नाम है। जन मानस में प्रवाहित होते रहते हैं। गांधी चाँद का नाम है जो चाँदनी बरसाते हैं। गांधी सूर्य का नाम है जो आकाश में दमकते रहते हैं। हत्यारे कभी शोभा के वस्तु नहीं होते। अगर गांधी से वैचारिक असहमति थी, तो अपने विचार से लड़ते। ऐसे लोग जो सत्य और अहिंसा पर अडिग व्यक्ति की हत्या करते हैं, वे दुनिया से खुद उठ जाते हैं ।
राजघाट पर गांधी का समाधि स्थल है। वहाँ कौन नहीं जाता ? देश के लोग तो जाते हैं, विदेश के लोग भी वहाँ पहुँचकर नत मस्तक होते हैं। राजनीति शास्त्र के एक प्रोफ़ेसर हैं शंकर शरण। उन्होंने एक अक्तूबर को दैनिक जागरण में पीके पर एक लेख लिखा है जिसमें गांधी-नेहरू को अल्पसंख्यकवादी कहा है। जलते बिहार और बंगाल को बचाने की कोशिश में उन्हें अल्पसंख्यकवाद दिखता है। बिहार में मुसलमानों की रक्षा और बंगाल में हिन्दुओं की रक्षा में उन्हें अल्पसंख्यकवाद नज़र आता है। तंग दृष्टि के आलोचकों ने देश को कम परेशान नहीं किया है। जिस पीके में संभावना दिखती है, वे भी गांधी की तस्वीर लगा कर घूम रहे हैं और जन सुराज भी गांधी की ही शब्दावली है। गांधी को दुनिया क्या इसलिए प्यार करती है कि वे अल्पसंख्यकों के पैरोकार थे? ऐसे लोग यह जान लें कि अगर परिवार में सबसे कमजोर जन की, समाज में अंतिम जन की और देश में अल्पसंख्यक की रक्षा नहीं होती, तो वहाँ लोकतंत्र का ख़्याल करना भी बेमानी है। लोकतंत्र की सत्ता कमजोरों की रक्षा के लिए होती है, बलवानों को और बलवान बनाने के लिए नहीं। जो लोग बहुसंख्यकवाद का नारा लगाकर गद्दी पर बैठते हैं, वे एक दिन बहुसंख्यक को ही अपने पैरों तले कुचलते हैं।
बीसवीं सदी में दो बड़ी घटनाएँ घटीं- एक हिन्दुस्तान का विभाजन और दूसरी, गांधी की हत्या। विभाजन पर जब सहमति बन गयी, तब भी गांधी ने कहा कि अंग्रेजों से कहो कि वह चला जाय, हम सब आपस में मिल बैठकर बँटवारा कर लेंगे। गांधी कहीं न कहीं आशान्वित थे कि आपस में बैठेंगे तो सुलह समझौता हो जायेगा, मगर उनकी सलाह मानी नहीं गई। जिसका कुल परिणाम है कि आज भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश पर विभाजन भारी है। विभाजन के समय करोड़ों बेघर हुए और दस लाख लोग मारे गये और आज भी सरहद पर टुकड़े टुकड़े में मारे जा रहे हैं। विभाजन के बाद भी उनकी योजना थी कि वे पाकिस्तान जायेंगे। लोगों को समझायेंगे, लेकिन यहाँ तो पिस्तौल ताने नाथूराम और उसकी पूरी गैंग थी। उसने आज़ादी के लिए एक कतरा खून तो बहाया न था। उसे आज़ादी का क्या मतलब समझ में आता ! जो भी हो, उनके आलोचक हों या समर्थक- पूरी दुनिया आज भी इस हाड़ मांस के पुतले को याद करती है। आज पर्यावरण का संकट हो या राजनीति का, अर्थ का संकट हो या समाज का संकट एक बार गांधी ज़रूर याद आते हैं ।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)