झारखंड में प्रवासी पक्षी

झारखंड में चुनाव तक बेहद गहमागहमी रहेगा, प्रवासी पक्षी आ जा रहे हैं

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डॉ योगेन्द्र
2000 के पहले झारखंड बनाओ रैली होती थी, अब झारखंड बचाओ रैली हो रही है। राजनीति में रैली ज़रूरी होती है। रैलियों से पता चलता है कौन पार्टी जीवित है और कौन मर गयी? चुनाव अगर क़रीब आ जाय तो रैलियों की सुनामी आ जाती है। हर पार्टी रैलियाँ आयोजित करती है और अपनी ताक़त का प्रदर्शन करती है। लोकतंत्र में प्रदर्शन ज़रूरी है। जैसे शादी में प्रदर्शन से पता चलता है कि घर वाला कितना रसूखदार है, वैसे ही लोकतंत्र में प्रदर्शन से पार्टियों की ताक़त का। इधर झारखंड में बहुत से प्रवासी पक्षी आते रहते हैं। असम, मध्यप्रदेश और दिल्ली के प्रवासी पक्षियों का बहुत ज़ोर हैं। इन्हें पता चल गया है कि बहुत से बांग्लादेशी घुस आये हैं और ये प्रवासी पक्षी अखाड़े में मुगदर लेकर भांज रहे हैं कि एक-एक को धक्के मार कर बाहर निकाल देंगे। दरअसल ये प्रवासी सितुआ पहलवान हैं, इनसे कुछ नहीं उखड़ने वाला। ये प्रवासी हवा में तीर चलाते हैं। कई वर्षों से चला रहे हैं कि मैं यह कर दूँगा, वह कर दूँगा और जब करने का मौक़ा मिलता है, तो टाँय टाँय फिस्स हो जाते हैं।

15 नवम्बर को झारखंड स्थापना दिवस मनाया जाता है। इस दिन बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा के नाम यहॉं बहुत से स्मारक हैं। हवाई अड्डा, चौक चौराहे, जेल, सरकारी भवन आदि उनके नाम हैं। लेकिन जो नहीं है, वह है बिरसा मुंडा का नारा-अबुआ दिशुम अबुआ राज यानी मेरा देश, मेरा राज। बिरसा मुंडा की लड़ाई सिर्फ़ अंग्रेजों के खिलाफ नहीं थी, बल्कि अपने देश में अपना राज क़ायम करने की थी। आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए गांधी ने स्वराज का सपना देखा था, वैसे ही बिरसा मुंडा ने देखा। गाँधी के सपने को नेहरू जी निगल गये और बिरसा मुंडा के सपने को यहाँ के प्रवासी पंक्षी। अंग्रेज गये, लेकिन पूरे देश में अंग्रेजियत चढ़ कर बोल रही है। हमारे पूर्वजों की सिर्फ़ प्रतिमा टँगी है, उनके सपनों को हर सरकार ने रौंदा ही है। देश में लोकतंत्र है, लेकिन लोक राज्य नहीं है। तंत्र राज्य है। बिरसा ने अपने लोगों के लिए शहादत दी , लेकिन उनके लोगों के स्वायत्त शासन के अनुसार शासन नहीं चल रहा। अभी भारत सरकार ने बनाया है भारतीय न्याय संहिता। कितना अच्छा नाम है। लगता है कि यह न्याय संहिता आम लोगों के लिए है, लेकिन इस संहिता में एक थानेदार शक के आधार पर आपको गिरफ़्तार कर सकता है और गिरफ़्तार के बाद थानेदार को नहीं, आपको साबित करना है कि आप निर्दोष कैसे हैं?

जिस तंत्र में लोक का कोई वैल्यू न हो, वहाँ लोकतंत्र कैसा? आप सड़क पर जा रहे हैं, पुलिस अफ़सर या मंत्री आदि का क़ाफ़िला निकलता है तो आपको ऐसे हड़काया जायेगा कि आपको लगेगा कि आप भारत के नागरिक नहीं, आतंकवादी हैं। आप सड़क पर इसलिए आये हैं कि आप बम मारेंगे। आपने जिसे चुना, उसके पास इतना पावर के है कि आपकी ऐसी तैसी कर सकता है। मेरे घर से निकलने के बाद एक सड़क है, जिस पर फौज की छावनी है। अगर फौज की कोई सामान्य गाड़ी भी है और वह दूर है, तब भी आपको ऐसे रोकेगा कि सचमुच आपातकाल है। अंग्रेजों ने जैसे आम लोगों को कदम-कदम पर असम्मानित किया, कमोबेश आज भी वही हालत है। अदना पुलिस को देख कर अच्छे-अच्छे लोग सकडदम हो जाते हैं। पुलिस की आम दृष्टि हिक़ारत वाली होती है। जो भी हो, झारखंड में चुनाव तक बेहद गहमागहमी रहेगा। प्रवासी पक्षी आ जा रहे हैं। हॉं, अब कोई नहीं चाहता है कि अपने देश में अपना राज हो।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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