ब्रह्मानंद ठाकुर
राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की एक कहानी है, दरिद्र नारायण। पहले यह कहानी दसमीं की हिंदी पाठ्य-पुस्तक में थी, अब नहीं है। स्वाभाविक हैं कि राजसत्ता अपने वर्गहित में पाठ्यक्रम का निर्धारण करती है। 1967-68 मे मैं मैट्रिक का छात्र था, तभी यह कहानी पढ़ी थी। उसका असर मुझपर अभी भी है। तब देश को आजाद हुए मात्र 20 बर्ष ही हुए थे। पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षाविदों द्वारा होता था। उद्देश्य भी स्पष्ट था, नीति नैतिकता और मानवीय मूल्यबोध से लैस नई पीढ़ी का निर्माण। 19वीं शताब्दी में मुंशी प्रेमचंद, रामवृक्ष बेनीपुरी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह जैसे अनेक महान साहित्यकार और कवि पैदा हुए जिनकी रचनाएं स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल थीं। छात्र उन्हें पढ़ते हुए बहुत कुछ सीखते- समझते थे। ऐसी ही एक कहानी थी दरिद्र नारायण। अब थोड़ी चर्चा उस कहानी की। राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह अपने राज्य उत्तर प्रदेश के जाने- माने राजाओ में से एक थे। उनका जन्म 1890 में हुआ था। राजकाज में मन नहीं लगने के कारण वे साहित्य रचना की ओर प्रवृत हुए। इस कहानी में कहानी का मुख्य किरदार एक राजा है। राजा को किसी चीज की कमी नहीं थी, फिर भी वह हमेशा परेशानी एवं दुखों से घिरा रहता था। वह अनेक तीर्थ स्थान पर अपने दुखों से छुटकारा का उपाय पूछता था। तीर्थ यात्रा को जाते समय राजा के सामने काफी संख्या में भिखमंगे और असहाय लोग अपना दुखड़ा सुनाने पहुंच जाते थे। राजा के सिपाही उन्हें डंडे मार-मार कर भगा देते थे। यात्रा से लौटते समय राजा अपने सामने पुनः वही दृश्य देख हक्का बक्का हो जाता था। एक मंदिर के पुजारी से जब उन्होंने यह बात बताई तो पुजारी ने उनसे कहा कि आपकी जो बेचैनी है, वह उन गरीब, असहायों की आह है, जिसे आपके सिपाही रास्ते से डंडे मार-मार कर भगाते रहे हैं। यही आपकी सुख, शांति के भंग होने का कारण है। यदि आप अपनी प्रजा को सुख एवं शांति देते हैं तो आपकी प्रजा प्रसन्न और खुशहाल होगी और आपकी अशांति स्वयं शांति में बदल जएगी। संक्षेप में कहानी यहीं है। अब मैं अपने कथ्य पर आता हूं। दरिद्र-नारायण कहानी तब लिखी गई जब देश में राजतंत्र था। राजतंत्र का जमाना लद गया। अब लोकतंत्र है। कहने को तो यह लोकतंत्र, जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है। लोकतंत्र की यह परिभाषा सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती है लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। यह पूंजीवादी- लोकतंत्र है। राजनीतिक दलों के लिए जनता सिर्फ वोट बैंक है। पूंजीवादी व्यवस्था के संचालक विभिन्न राजनीतिक दल इस वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए जनता के बीच जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद की भावना पैदा कर, पूंजीपतियों के विभिन्न प्रचार माध्यमों के सहारे चुनाव जीते जाते हैं। चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशी जनता के बीच उसके विकास के लिए बड़े-बडे वादे करते हैं। फिर चुनाव जीतने के बाद उसे भूल जाते हैं। शोषित -पीडित बेरोजगार युवा, छात्र, विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त किसान- मजदूर और महिलाएं जब अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करती हैं तो उनपर लाठी -गोलियां चलाई जाती हैं। समझना यही है कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के शासकों के सामने लोक अपने हक हुकूक के लिए, सम्मान की जिंदगी जीने के लिए हाथ जोड़े गिरगिरा रहा है। व्यवस्था को चैन मिले तो कैसे?

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)