जब राजेन्द्र बाबू को अपनी भतीजी के विवाह में कर्ज लेना पड़ा था
राजेन्द्र बाबू दहेज प्रथा के घोर विरोधी थे
ब्रह्मानंद ठाकुर
बात आज से 118 साल पहले की हे। राजेन्द्र बाबू 1916 में कलकत्ता (अब कोलकाता) से वकालत की पढ़ाई पूरी कर वकालत करने पटना आ गये थे। उनकी वकालत चलने लगी। समाज सुधार आंदोलन भी उस दौर में चलाया जा रहा था। एक दिन राजेन्द्र बाबू के कुछ स्वजातीय मित्र एक प्रतिज्ञा पत्र के साथ उनसे मिलने आए। वह प्रतिज्ञा पत्र लड़के की शादी में तिलक-दहेज के नाम पर 51 रुपये से अधिक नहीं लिया जाए,से सम्बंधित था।
राजेन्द्र बाबू तिलक-दहेज प्रथा के घोर विरोधी तो थे ही, उन्होंने हुलस कर उस प्रतिज्ञा पत्र पर अपना हस्ताक्षर कर दिया। अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र बाबू ने लिखा है कि उनकी तीन भतीजी, एक भतीजा और स्वयं उनके दो पुत्र थे। संयुक्त परिवार था। तीन में दो भतीजी की शादी हो चुकी थी। उसमें उन्हें काफी तिलक-दहेज देना पड़ा था। छोटी भतीजी रमा और तीन लड़कों का विवाह होना अभी बाकी था। वे लिखते हैं, लडके की शादी में तिलक-दहेज तो लेना नहीं था और लड़की का विवाह बिना दहेज के सम्भव नहीं था। सभी लड़के वाले उनकी तरह उदार तो नहीं थे। पहले तो लड़की के लायक लड़का खोजने में परेशानी।फिर लड़के की माली हालत भी ऐसी होनी चाहिए कि लड़की को बाद में कोई परेशानी न हो। राजेन्द्र बाबू कोई खास उपार्जन तो कर नहीं रहे थे। भाई महेंद्र प्रसाद जी को मास्टरी की नौकरी से जो मिलता था, वह वहीं खर्च हो जाता था। घर में जमींदारी थी। उसी से घर का सारा खर्च किसी तरह चल पाता था। ऐसी ही परिस्थिति में रमा का विवाह लखनऊ के विद्या दत्त जी के साथ और उनके बेटे मृत्युंजय का विवाह ब्रजकिशोर बाबू की पुत्री के साथ होना तय हुआ। अपनी प्रतिज्ञा का ख्याल रखते हुए राजेन्द्र बाबू ने बेटे मृत्युंजय के विवाह में कोई दहेज नहीं लिया। रमा की बारात बड़े ताम-झाम के साथ आई। लड़के वाले बहुत प्रतिष्ठित घराने के थे, लिहाजा उनकी शान अधिक थी। बारातियों के ठहरने का इंतजाम नफासत भरा था। राजेन्द्र बाबू अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, मैंने अपने घर के तीनों लड़कों के विवाह में तिलक-दहेज नहीं लिया लेकिन तीन लड़कियों की शादी में काफी तिलक -दहेज देना पड़ा। रमा का विवाह जिस लड़के से हुआ वह और उसके बड़े भाई कलकत्ते में उनके साथ ही पढ़ते थे। उन्हें उम्मीद थी कि सारी बातें आसानी से हो जाएगी। राजेन्द्र बाबू आगे लिखते हैं, लेकिन पुरानी रुढि जल्दी समाप्त नहीं होती। इसलिए इस विवाह में उन्हें दिक्कत उठानी पड़ी। सब कुछ होते हुए भी घर में रुपये-पैसे तो थे नहीं। अन्न तो खेतों में पैदा होता था। इसलिए उसकी कोई चिंता नहीं थी, पर नगद खर्च के लिए दोनों भाईयों को कर्ज लेना पड़ा था। वे लिखते हैं, लड़कियों को रुपये देना पिता का धर्म हो सकता है। पर हमारे समाज में पिता को दिल से और प्रेम से देने की बात नहीं है। शादी से पहले ही बात चीत कर तय कर लिया जाता है कि तिलक में इतना और बारात आने पर इतना देना होगा। हजार कोशिश करने पर भी यह प्रथा अभी तक जारी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)