चावल के लिए बाजार पर निर्भर हो गये धान उत्पादक

जिस किसान के घर जितना पुराना चावल, वह उतना ज्यादा सम्पन्न किसान

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ब्रह्मानंद ठाकुर
यही आज की हकीकत है। किसान धान उपजाते हैं। धान से चावल तैयार होता है। किसानों के घरों में नहीं, बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित चावल मिलों में। फिर प्लास्टिक के आकर्षक पैकेट में विभिन्न ब्रांडों का लेवल लगा उसे बाजार में उतार दिया जाता है जहां से उपभोक्ता इसे खरीदते हैं। ऐसा करते हुए किसानों ने जो बड़ी मूल्यवान सम्पदा खोई है, वह है उनकी आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन और स्वाभिमान। ऐसा किसानों ने स्वेच्छा से नहीं किया। इसके लिए परिस्थितियां तैयार की गई। किसने की, इसे समझने के लिए सही राजनीतिक दृष्टिकोण जरूरी है। कारपोरेट परस्त व्यवस्था इस दृष्टिकोण के विकास में बाधक है। चलिए, इसे समझने के लिए चार-पांच दशक पहले वाले गांव में चलते हैं। तब अगहन के महीने में धान उत्पादन होने के साथ ही किसानों के आंगन में उत्सवी माहौल में धान की कुटाई शुरू हो जाती थी। यह काम दो-तीन महीने तक चलता था।

बड़े कनस्तर या अल्युमिनियम वाले तसले में आंगन में चुल्हे पर महिलाएं धान उसनतीं, सुखातीं और फिर ढेकी या ओखल में उसकी कुटाई की जाती। एक बार नहीं, दो बार कूटने पर धान से चावल तैयार होता था।
जिसके घर में जितना पुराना चावल होता, वह उतना ज्यादा सम्पन्न किसान माना जाता था। फिर एक कहावत बनी, ‘पुराना चावल ही पथ्य होता है।’ फिर कुछ समय बाद गांव में बिजली मोटर से चलने वाली चावल कुटाई मशीन आई। धान से चावल बनाने का काम पहले से थोड़ा आसान हो गया। ओखल और ढेकी के दिन लद गये। वक्त ठहरता थोड़े है? वह तो आगे ही सरकता रहता है।

धीरे-धीरे। इतना धीरे कि लोग तत्काल उसके भावी अंजामों से वाकिफ नहीं हो पाते। फिर शहरों एवं उसके आसपास के इलाके में उद्योगपतियों ने धराधर राइस मिल खोलना शुरू कर दिया। इन चावल मिलों के लिए धान की जरूरत पड़ी। मिल संचालकों के एजेंट और व्यापारियों ने गांव का रुख किया। फसल तैयार होते ही किसानों ने व्यापारियों को धान बेचना शुरू कर दिया। इसलिए भी कि अगली खेती के लिए खाद-बीज जुटाने वास्ते उनको पैसों की तत्काल जरूरत थी। बिचौलियों ने भी इसका भरपूर फायदा उठाया। धान खेत से सुनें पहुंच गया चावल मिलों में। पिछले साल किसानों का धान अधिकतम दो हजार रुपये क्विंटल की दर से बिका था। औसत डेढ़ क्विंटल धान से एक क्विंटल चावल तैयार होता है। कम्पनियां उपभोक्ताओं से इसका तिगूना से ज्यादा वसूलती है। खुदरा बाजार में विभिन्न ब्रांडों के चावल के मूल्य से इसकी पुष्टि होती है। खिला-खिला ब्रांड चावल के 26 किलो वाले पैकेट का मूल्य 1250 रुपये, 24 कैरेट ब्रांड का 1450 रुपये, लाल किला ब्रांड का 2350 रुपये (सभी ब्रांड 26किलो का पैकेट)। चावल के ऐसे दर्जनों ब्रांड बाजार में उपलब्ध है। अब तो लोग बड़ी शान से मोटरसाइकिल पर चावल का पैकेट लादे घर लौटने लगे हैं। इनके लिए चावल खरीदना शर्म की बात नहीं, चावल का बढिया ब्रांड न खरीदना शर्म की बात हो गई है। यही है पूंजीवाद का घिनौना चेहरा। बाजारवाद अब कारपोरेट के सहारे चलकर घर-घर में अपना पांव जमा लिया है। पूंजीवाद के इसी तिलिस्म को तोड़ना जरूरी है। बिना ऐसा किए मुक्ति सम्भव नहीं।

 

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ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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