सत्यार्थ यात्रा- सूर्य मंदिर

एक आदर्श मंदिर कैसा होना चाहिए?

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सत्यार्थ यात्रा-
मंदिर क्या है? गूगल से अगर आप यह सवाल पूछते हैं, तो जवाब कुछ ऐसा आता है — “मंदिर एक धार्मिक इमारत है, जहां पूजा-अर्चना की जाती है। मंदिर को देवस्थान या देवालय भी कहते हैं।” अगर मेरी समझ सही है, तो मंदिर वह स्थान या आलय है जहाँ देवी-देवता निवास करते हैं। इन्हीं देवी-देवताओं की पूजा और अर्चना भी यहाँ संपन्न होती है। थोड़ी और जाँच पड़ताल करेंगे तो देर-सबेर आप कुछ ऐसे तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचेंगे —“मंदिर केवल एक भौतिक संरचना नहीं है, यह एक आत्मिक और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि मनुष्य का अस्तित्व केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है। जब हम मंदिर में प्रवेश करते हैं, तो हम न केवल भगवान के पास जाते हैं, बल्कि अपने भीतर की दिव्यता से भी साक्षात्कार करते हैं।”
सूरज से साक्षात्कार कर सुकान्त और अनिशा कमरे में वापस आ गए। कल ही सुकांत ने “Meditations & Its Methods” को पढ़ना शुरू किया था। लगभग आधी किताब पर बुकमार्क लगा है। कमरे में लौटकर वह उस किताब को उठाकर पढ़ने लगता है। स्वामी विवेकानंद ने सागर किनारे अच्छा खासा समय बिताया होगा। अपने दार्शनिक चिंतन को जन-मन तक पहुँचाने, वे अक्सर सागर और लहरों का उद्धरण देते हैं। वे सागर को आत्मा और चेतना को लहर बताते हैं। कितना सुंदर विवरण है। चेतना, आत्मा, परमात्मा सब एक हो गए, सागर हो गए, आकाश हो गए, धरती हो गए, समस्त ब्रह्मांड के साथ मिलकर ब्रह्म हो गए। उन्होंने लिखा है कि भगवान को समझने के लिए भगवान बनना पड़ता है। भक्ति चेष्टा है, भगवान परिणाम। जब आध्यात्म ही अंदर है, तब आस्था बाहर कैसे हो सकती है?
सुकांत ऐसे ही सवालों का उत्तर तलाश रहा है। तभी तो विवेकानंद को पढ़ रहा है। अब उसे किसी परीक्षा के लिए पढ़ने की बाध्यता नहीं है। तंत्र से उलझकर तंत्र को बदलना कहाँ संभव हो पाया है? लोकतंत्र को बदलना है, तो लोक को बदलना होगा। और उपाय ही क्या है? स्वराज में तंत्र की जरूरत ही क्या होगी? स्वराज और अराजकता में जिम्मेदारी मात्र का तो अंतर है। जो मन की करे और किसी की ना सुने, वह ग़ैर ज़िम्मेदार है, अराजक है। जो सबकी सुनकर भी मन की करे, वही तो स्वराज है। कितना सरल है नैतिकता को परिभाषित करना— जो जीवन के पक्ष में है, नैतिक है। देख लो! भाइयों और बहनों! आपके जीवन के पक्ष में क्या है? कौन नहीं! कौन हूँ मैं? इसका उत्तर ढूँढने निकलेंगे तो घुमफिर कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे— “तत् त्वम् असि”, तुम वही हो! वही कौन? जो मैं हूँ। लो! उलझ गए ना। बस यही उलझन अज्ञानता है, जिससे मेकअप का बाज़ार चमक उठा है। साथ ही चमक उठा है मंदिरों में भक्ति का व्यापार। एक आदर्श मंदिर कैसा होना चाहिए?
पल दो पल के लिए बस आँख बंदकर कल्पना करने की कोशिश कीजिए। एक सुंदर सा अहाता, जहाँ बाग हो बगीचा हो। बगीचे में पेड़ तो होंगे ही। उन पेड़ों के नीचे कहीं एक साधक पद्मासन में बैठा ध्यान मगन है। दूसरा भक्त निःस्वार्थ भाव से परिसर की साफ़-सफ़ाई में लगा हो। तीसरा कहीं डालों पर बैठा बाँसुरी बजा रहा हो। पेड़ों की छाया में बच्चे खेल रहे हों। घरौंदे बनाकर गुड्डे-गुड्डियों की शादी करवा रहे हों। एक कुम्हार हो जो आने वाली पीढ़ी को बर्तन बनाने का हुनर सीखा रहा हो। एक कलाकार भी आस पास बैठे विद्यार्थियों को कला सीखा रहा हो। सब मिलकर एक मंदिर बना रहे हों। इन सबको देखकर इनके राजा को ख्याल आया होगा कि चलो क्यों न इन सबके साथ एक ऐसा ही मंदिर बनाया जाए, जो ना सिर्फ़ वास्तुकला में बेमिसाल हो, बल्कि एक वैज्ञानिक चमत्कार हो। सिर्फ़ वैज्ञानिक ही क्यों, यहीं कला और सभ्यता को भी जोड़कर एक ख़ज़ाना बना लेते हैं। अपने १२-१३ साल की पूरी पूंजी को १२,००० लोगों के लिए रोजगार खर्च पर करने का निर्णय लिया— गजपति नरसिंह देव ने। नतीजा? जी हाँ! आप सही समझ रहे हैं। नतीजा एक विश्व दरोहर है, जो हमारे सामने कोणार्क के सूर्य मंदिर रूप में प्रमाण सहित खड़ी है।
“वर्ल्ड फेमस है सूर्या मंदिर। पूजा नहीं, कोई पंडा नहीं। मोबाइल, कैमरा सब एंट्री है। क्यों पूजा नहीं होती, बाद में बताएगा।” — सुकांत अनिशा के साथ काफ़ी सोचने-विचारने के बाद सूर्य मंदिर के दर्शन के नतीजे तक पहुँचा है। उसे धार्मिक पंथ के कर्मकांड और मंदिरों से सख़्त परहेज है। उसके चाहनेवालों को लगता है कि वह नास्तिक है। लगने और होने के बीच जो फ़र्क़ है, उसे ही तो भ्रम या माया कहते हैं। धर्म के चश्मे से देखेंगे तो वह आस्तिक नजर आएगा, पंथ के आईने में कौन नास्तिक नहीं है? जिसे मन कर उसे साबित कर लो। तभी तो तर्कों को अप्रमा माना गया है। सनातन दर्शन को सनातन धर्म से अलग किस अज्ञानी ने कर दिया? धर्म की आँखें नोच दो, पंथ पाखंडी बन जाएगा। दर्शन विहीन साहित्य की आड़ में आध्यात्म का व्यापार चल रहा है। सुकांत को मन
के इस व्यापार से आपत्ति है। वह लिखता है — “Mind and money are eternal arch enemies. Wherever mind is involved, money shall be excluded.”
मन को काबू में लाने की कला ही तो शिक्षा है। अशिक्षित मन ही तो तबाही है। कौन ज्ञानी प्राणी अपराध करने को लालायित है? अगर शिक्षा ही व्यापार है, तो विचार और व्यवहार का संतुलन कौन बनाएगा? असंतुलित मन ही तो कोहराम मचाता है। सुकांत को यह जानकर बड़ी राहत मिली कि उसे ना तो चप्पल उतारने पड़ेंगे, ना ही पूजा पाठ करना पड़ेगा। उसे यही उम्मीद थी, तभी तो उसने इस मंदिर में कदम रखने का साहस किया। वरना धर्म के दीवानों को देखते ही उसके रौंगटे खड़े और पसीने छूटने लगते हैं। ये दीवाने झूम रहे हैं। ना जाने कौन सा नशा किए मस्त हैं?
आज ही सुबह दोनों मंदिर गए थे। शायद शादी के बाद उन्होंने पहले किसी मंदिर में प्रवेश किया होगा। इस बात की किसी को कोई शिकायत तो नहीं? रूम पर लौटकर वे दोनों वीडियो को एडिट करने बैठे हैं, जो उन्होंने वहाँ एक स्थानीय गाइड के साथ मिलकर बनाया है। आज दोनों थक गए हैं। आज करे, सो कल कर, कल करे सो परसों। इतनी भी क्या जल्दी है भाई, जब जीना है बरसों!

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