डॉ योगेन्द्र
16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण का देहांत हुआ। स्वामी विवेकानंद परेशान। उस समय वे स्वामी विवेकानंद नहीं थे। नरेंद्र मात्र थे। कोई उन्हें ठीक से जानता नहीं था। उनके साथ नौ अन्य युवा। क्या करें, क्या न करें? घर भी तबाह हो चुका था। खाने के लाले पड़े थे। वे घर देखें या अपने प्रिय युवा संन्यासियों को। वे लिखते हैं-‘मेरी उम्र रही होगी सोलह वर्ष की, कुछ और मुझसे भी छोटे थे और कुछ बड़े भी थे- लगभग एक दर्जन रहे होंगे, हम सब। और हम सब ने बैठकर यह निश्चय किया कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है। और चल पड़े हम लोग- न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिए, बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिए। तात्पर्य यह कि हमें दिखलाना था हिन्दुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीव दया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बंधुत्व। हमने निश्चय किया, ‘हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगे- अभी और यहाँ ही। हम रुकेंगे नहीं।’
मगर रास्ते आसान नहीं थे। विवेकानंद आगे लिखते हैं-‘सभी ने हँसी की, हँसी करते-करते वे गंभीर हो गये- हमारे पीछे पड़ गये- उत्पीड़न करने लगे। बालकों के माता-पिता हमें क्रोध से धिक्कारने लगे, और ज्यों-ज्यों लोगों ने हमारी खिल्ली उड़ायी, त्यों-त्यों हम और दृढ़ होते गए।’ विवेकानंद तो नदी की उच्छल धारा थे, बहते रहे। पर देश में आध्यात्मिकता नहीं आयी। एक तरफ कुंभ चल रहा है। स्नान करने का अहोभाग्य। दूसरी तरफ राम लला जहाँ अवस्थित हैं, वहाँ एक दलित लड़की की आँख फोड़ी जाती है, शरीर पर गहरे घाव, पैर फ्रैक्चर, हड्डियां टूटी हुई। कौन सा देश है यह और कैसा देश है? जहाँ महात्मा बुद्ध, विवेकानंद, गांधी हुए। फूले, कबीर, अम्बेडकर हुए, वहाँ यह हालत है? पुलिस खोजबीन करेगी। झूठे सच्चे प्रपंच रचे जाएँगे। आज भी करोड़ों भारतीय मनुष्य का दर्जा प्राप्त करने के लिए संघर्षरत हैं। जो मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते, वे तो पशुवत हैं ही। इन्हें ही मनुष्य बनाना है। ढोंग और ढकोसले में लिपटे हुए ये अमानव देश में धर्म का झंडा थामे हुए हैं। देश किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसके सामने भी लाश पड़ी है। उसे जिंदा मनुष्य बनाने की चुनौती है।
कोई ढकोसलेबाज रामभद्राचार्य है। कुछ किताबें लिखी हैं इसने। वह जो विष वमन करता रहता है, उससे तो नहीं लगता कि उनकी किताबें पढ़ने लायक होंगी। संकीर्ण दिमाग और सोच का आदमी जो आदमी खुद को राम भक्त कहता है। कभी जाति गिनता है, कभी कुंभ में हताहत लोगों के लिए कुंठित विचार व्यक्त करता है। ये आजकल के साधु हैं और एक महाकरुणा से लैस बुद्ध थे और अपार आध्यात्मिकता से विवेकानंद। सनातन धर्म का प्रतीक रामभद्राचार्य जैसे लोग हैं तो इस पर पुनर्विचार की जरूरत तो है ही। दलित बालिका की नृशंस हत्या भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गहरे सवाल तो करती ही है और यह एक मात्र हत्या नहीं है। एक सीरिज है। हाथरस याद कीजिए। मार कर रातों रात जलाने और उसमें भी प्रशासनिक सहयोग। ऐसे लोगों के लिए क्या 15 अगस्त और क्या 2022 । जिस समाज में सम्मान के साथ आदमी साँसें नहीं ले सकता। उस पर गहराई से सोचिए। एक घर जल जाने से आग की रफ़्तार घट नहीं जाती।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)