अब नहीं आता गुलाब छड़ी बेचने वाला जोखन
हमें खुद की ताकत पर भरोसा कर एकजुट हो अपने अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़नी ही होगी।
ब्रह्मानंद ठाकुर
कल शाम दरवाजे पर बैठा दिन भर की भीषण तपिश में कुम्हलाया आसमान निहार रहा था। सामने की सड़क पर दो-तीन छोटे बच्चे साइकिल से प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ लगा रहे थे। उनमें एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी। वैसे भी मनुष्य का जीवन आजकल एक-दूसरे को पछाड़, आगे निकल जाने की होड़ को समर्पित हो चुका है। बच्चे क्यों अपवाद बनें? ऐसे में 11-12 साल का एक लड़का मुंह में सिगरेटनुमा कोई चीज दबाए, मस्ती में साइकिल चलाते गुजरा। मैं उसे देख चौंका। ‘इसी उमिर में सिगरेट? ‘मेरे मुंह से अचानक प्रतिक्रिया के स्वर फूट पड़े। बगल में उसी लड़के का हमउम्र मेरा पोता बैठा हुआ था। उसने मुस्कुराते हुए तपाक से कहा, नहीं-नहीं, यह सिगरेट नहीं, कैंडी है। 5 रुपये में मिलता है। बड़ा ही मजेदार होता है। इसके कई फ्लेवर होते हैं । मैंगो फ्लेवर, औरेंज फ्लेवर, ग्रेप फ्लेवर आदि आदि। तब मैं मन में सोचने लगा, तभी तो विभिन्न नाम और दाम वाले चाकलेट, रसना, स्नैक, स्टिंग, स्प्राइट, पेप्सी, कोको कोला, थम्स अप, सेवेन अप, माजा, शौर्ट्स आदि उत्पादों ने बच्चों को खूब आकर्षित किया है। गांव की दुकानों में ये सब आसानी से उपलब्ध हैं। यही सब सोचते हुए मैं अपने बचपन के दिनों में लौटता हूं। तब गांव में चनाजोर गरम, मलाई बरफ और गुलाब छड़ी बेचने का भी मौसम हुआ करता था। जाड़े के दिनों में चना जोर गरम, गर्मी में मलाई बरफ और बरसात का मौसम बीतने के बाद गुलाब छड़ी बेचने वाले गांव में अक्सर दिख जाते थे। चनाजोर गरम बेचने वाले रामविलास जब अपनी गरदन में काठ का छोटा बक्सा (जिसमें चनाजोर गरम रखा होता) लटकाए आते तो उनका कवित्त ‘ मेरा चना बना है ईर/खाते लक्ष्मण जैसे वीर /घट गये रावण के तकदीर/कट गये मेघनाथ के सीर (वे तुक मिलाने के लिए सिर को सीर बोलते थे ) चना जोर गरम। भैया मैं लाया मजेदार /चना जोर गरम। ‘सुनते ही बच्चे उनको घेर कर खड़े हो जाते। एक आना में एक पुड़िया। वह पुड़िया कागज की तीन-चार ईंच लम्बी फोंफी जैसी होती। पुड़िया रामविलास स्वयं बनाते। कागज उनके पास ही रहता था। खास बात यह थी कि वे अनाज के बदले नहीं, पैसे से चना जोर गरम बेचते थे। मलाई बरफ और गुलाब छड़ी वाला तो अनाज भी ले लेता था। तब घरों में उतने पैसे कहां थे। सामान्य तौर पर केवल वस्तु से वस्तु विनिमय की परम्परा थी। ऐसे ही में थे एक जोखन। दूर से आते थे। माथे पर गुलाब छड़ी वाला लकड़ी का चौकोर बक्सा और बगल में बांस की पतली पट्टी से बना स्टैंड लटकाए। टोले में आकर बगल से स्टैंड जमीन पर खड़ा करते फिर उसके ऊपर गुलाब छड़ी वाला बक्सा रख गाने लगते ‘गुलाब छड़ी टन टन बोले, धिया पुता के मनवां डोले।’ तब खरीफ मक्के की कटाई हो चुकी होती। घरों में मक्के की बालियों की ढेर लगी रहती। हम जोखन की ओर हाथ में मकई की बाली लिए दौड़ पड़ते। टोले के और भी बच्चे वहां जमा हो जाते थे। जोखन कागज पर गुलाब छड़ी रख हमारे हाथों में थमा देते। गुलाबी रंग का गुलाब छड़ी। लम्बा-लम्बा मीठा और कुरकुरा। चबाने पर दांत और जीभ में लाली आ जाती थी। तब गांव में इक्के-दुक्के दुकानें हुआ करतीं जहां बच्चों के लिए सिर्फ लेमनचूस और साधारण बिस्किट ही मिलते थे। फिर वक्त बीतने के साथ-साथ गांवों में दुकानों की भरमार हुई। उन दुकानों में कम्पनियों एवं उसके व्यावसायिक एजेंटों द्वारा नियमित उनका उत्पाद पहुंचाया जाने लगा। विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ताओं का एक नया वर्ग पैदा हुआ। अब तो गांव में भी मॉल कल्चर डेवलप होने लगा है। एक ही छत के नीचे उपभोग की तमाम चीजें उपलब्ध।
इस कॉर्पोरेट व्यवस्था ने पहले ‘जोखन’ और ‘रामविलास’ को उनके रोजगार से विस्थापित किया। अब कॉर्पोरेट घराने छोटे-छोटे अल्प पूंजी वाले दुकानदारों को उनके रोजगार से विस्थापित करने में लगे हैं। व्यवस्था और मीडिया उनके साथ हैं। लोग कहते हैं, बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती ही है।यही प्राकृतिक न्याय है। सवाल महत्वपूर्ण इसलिए भी कि हम कब तक इस प्राकृतिक न्याय वाली अवधारणा को सत्य मान खुद को बर्बाद करते रहेंगे? अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अलग-अलग लड़ते रहेंगे? हमें खुद की ताकत पर भरोसा कर एकजुट हो अपने अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़नी ही होगी।वह वक्त अब आ गया है।