समाज को आज जरूरत है एक अदद ‘सूरदास ‘की

मुंशी प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास 'रंग भूमि' के नायक सूरदास

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ब्रह्मानंद ठाकुर 
आज के ‘ठाकुर का कोना’ में मैं जिस सूरदास की चर्चा करने जा रहा हूं, वह हिंदी साहित्य के भक्ति काल में कृष्ण की बाल लीला और भ्रमर की गीत की रचना कर अमर हो जाने वाले भक्त कवि सूरदास नहीं, मुंशी प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘रंग भूमि’ के नायक सूरदास हैं। प्रेमचंद ने अपना यह उपन्यास अक्टुबर 1922 से अप्रैल 1924 तक लगभग दो सालों में पूरा किया था। वह समय भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का था।
किसी रचनाकार की कृतियों का सही मूल्यांकन उसके समय की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पृष्ठ भूमि को नजर अंदाज कर नहीं किया जा सकता। लेखक ने जिन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में इस उपन्यास को लिखा है, वह देश के आजादी आंदोलन का दौर था। कुछ समय के लिए वह आंदोलन शांत हो गया था। गांधी जी जेल में थे और आजादी आंदोलन के मूर्धन्य नेतागण दो भागों—नो चेंजर्स और प्रो चेंजर्स में बंट चुके थे। नो चेंजर्स वालों में कौंसिल में पहुंचने की धूम मची हुई थी। ऐसे में मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास ‘गवन ‘ का प्रकाशन हिंदी साहित्याकाश में धूमकेतु की तरह हुआ। जिसके बहाने मैं आज यहां अपनी बात कहने जा रहा हूं, वह सूरदास इसी उपन्यास का एक पात्र है।
इस सूरदास के पास कुछ पैतृक जमीन है, जिसे वह गांव के मवेशियों के चारागाह हेतु परती छोड़े हुए हैं। खुद भीख मांग कर गुजारा करता है और झोपडी में रहता है। जॉन सेवक नाम के एक अंग्रेज को सिगरेट फैक्ट्री खोलने के लिए जमीन की जरूरत है। वह जमीन तलाश रहा है। एक दिन सूरदास की उक्त जमीन पर उसकी नजर लग जाती है।वह इस जमीन को किसी भी तरह से हथियाने की जुगत में लग जाता है। वह सूरदास से वह जमीन बेंच देने को कहता है।सूरदास यह कहते हुए इन्कार कर देता है कि जमीन उसके बाप-दादे की है। वह इसे गांव के मवेशियों के चरने के लिए परती छोड़े हुए हैं। इसे वह हर्गिज नहीं बेंच सकता। फिर उसको समझाने गांव के गण्यमान्य लोग आते हैं। उसे लालच और धमकी देते हैं। सूरदास उनकी भी बात नहीं मानता। वह अपने निश्चय पर अडिग रहता है। हालांकि जमीन उसके हाथ से निकल जाती है।
सूरदास ने आखिर जॉन सेवक को सिगरेट फैक्ट्री स्थापित करने वास्ते अपनी जमीन देने से इन्कार क्यों कर दिया ? इस क्यों का जवाब ही आज के समय में सूरदास की प्रासंगिकता है। सूरदास को सिगरेट फैक्ट्री खोले जाने से उतना एतराज नहीं था। उसे एतराज था इस फैक्ट्री की आड़ में गांव में नाना तरह की विकृतियां पैदा हो जाने की सम्भावना से। इलाके के राजा साहब जॉन सेवक के पक्ष में सूरदास को जमीन देने के फायदे गिनाते हुए कहते हैं, ‘हजारों मजदूर, बाबू, मिस्त्री,  मुंशी, लुहार, बढ़ई यहां आकर आबाद होंगे। एक अच्छी बस्ती बसेगी, नई-नई दुकानें खुलेंगी, किसानों को उनकी साग-भाजी की अच्छी कीमतें मिलेंगी, ग्वाले को दूध का अच्छा दाम मिलेगा। कुजरे, खटीक, धोबी, नाई सभी को काम मिलने लगेगा। तुम ही तो इस पुण्य के भागी बनोगे।’  आज आजाद भारत की सरकारें औद्योगीकरण के पीछे यही तो तर्क देती हैं। यह बात दीगर है कि बाबजूद इसके सिंगूर और नन्दीग्राम की घटनाएं होती रहती हैं। सूरदास राजा साहब को जो जवाब देता है वह औद्योगीकरण के पीछे छिपी ऐसी ही कतिपय बुराइयों के प्रति एक संकेत है। सूरदास कहता है, ‘सरकार बहुत ठीक कहते हैं। गांव की रौनक जरूर बढ़ जाएगी। रोजगार से लोगों को फायदा भी होगा। लेकिन रौनक बढ़ने के साथ-साथ ताड़ी, शराब का उपयोग भी बढ़ जाएगा। परदेशी आदमी हमारी बहु-बेटियों को घूरेंगे। किसान अपना काम छोड़ मजदूरी के लालच में यहां आकर बुरी बातें सीखेंगे। बहु-बेटियां यहां मजदूरी करने आएंगी और पैसे के लोभ में अपना धर्म बिगाड़ेंगी। जो रौनक शहरों में है, वहीं गांव में आ जाएंगी। माफ़ करिए सरकार, मैं यह अधर्म अपने माथे पर नहीं ले सकता। ‘सच में जमीन बचाने के बहाने सूरदास उस समाज को बचाने की कोशिश कर रहा है जिसका आधार होगा उच्च नीति-नैतिकता, मर्यादा, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यबोध। यह चाहत सिर्फ ‘सूरदास’ की ही नहीं, समाज के हर वैसे प्रबुद्ध और संवेदनशील लोगों की होनी चाहिए जो समाज को आर्थिक, सांस्कृतिक और नैतिक विपन्नता के गर्त से निकालकर परस्पर भाईचारे, सहयोग और उच्च मानवीय मूल्यबोध के आधार पर नया समाज निर्माण के पक्षधर हैं। आज जरूरत ऐसे ही समाज निर्माण की है !

Today society needs a 'Surdas'
Brahmanand Thakur

 

 (ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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