विश्वविद्यालय की सैर

हज़ारीबाग़ विश्वविद्यालय की स्थापना 1992 में हुई

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डॉ योगेन्द्र
कल जब बिनोवा भावे विश्वविद्यालय, हज़ारीबाग़ जाने के लिए पुराने बस स्टैंड पर बस से उतरा तो दिन के ग्यारह बज रहे थे। उतरते ही हिन्दी विभाग के एक शिक्षक का फ़ोन आया। वे कार लेकर मौजूद थे। पुराने बस स्टैंड से विश्वविद्यालय की दूरी चार किलोमीटर की है। कार जब विश्वविद्यालय परिसर में पहुँची तो छात्र-छात्राओं को देख कर बहुत अच्छा लगा। विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं की संख्या नदारद है, ऐसा कुछ लोग कहते लिखते रहते हैं। ऐसे लोगों को विनोबा भावे परिसर देख कर निराशा होगी। हिन्दी विभाग में अध्यक्ष के कक्ष में ही सभी शिक्षक बैठते हैं। पूर्ववर्ती अध्यक्षों की एक लंबी सूची लगी थी। पहला नाम प्रो नागेश्वर लाल का था। मुझे याद आया कि जब मैं पटना में विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त होने के लिए साक्षात्कार दे रहा था तो बोर्ड में प्रो नागेश्वर लाल और प्रो नामवर सिंह थे। प्रो नागेश्वर लाल ने मुझसे पूछा था कि मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ में आधा-अधूरा कौन है? वैसे प्रो नागेश्वर लाल राँची विश्वविद्यालय के शिक्षक थे और जब राँची विश्वविद्यालय से कट कर हज़ारीबाग़ विश्वविद्यालय की स्थापना 1992 में हुई, तब प्रो नागेश्वर लाल हज़ारीबाग़ विश्वविद्यालय आ गये। वे उद्भट विद्वान थे। हिन्दी विभाग का वातावरण ठीक लगा। अमूमन विभागों में शिक्षक आपस में टकराते रहते हैं। शिक्षकों के बीच सौहार्द क़ायम था और जब ये लोग आपस में टिफ़िन करते हैं तो एक दूसरे की टिफ़िन का स्वाद लेते हैं। सबसे अच्छी बात यह लगी कि विभाग में जो सामान मौजूद है, उसकी ख़रीदारी शिक्षकों ने की है और अपना वेतन का पैसा लगाया है।
सुबह जब राँची से चला था तो ठंड कम थी, लेकिन धीरे-धीरे वह बढ़ने लगी थी। विश्वविद्यालय परिसर पहुँचा तो ठंड से मुक्ति पाने के लिए धूप में जाने की इच्छा बलवती होती थी, लेकिन पढ़ने-पढ़ाने का काम तो छत के तले ही होता है। उस पर भी छात्रों का इंटरव्यू लेना तो कमरे में ही संभव था। दरअसल दो छात्रों को जेआरएफ से एसआरएफ करने के लिए उनका साक्षात्कार लेना था। जेआरएफ मतलब जूनियर रिसर्च फैलोशिप और एसआरएफ मतलब सीनियर रिसर्च फैलोशिप। औपचारिक परिचय के बाद अध्यक्ष सहित सभी शिक्षक साक्षात्कार लेने के लिए एक कमरे में पहुँचे। कमरे आधुनिक सामान से लैस थे। दीवार पर स्क्रीन, सजा हुआ टेबुल, ढंग की कुर्सियॉं और लेक्चर डिलीवर करने के लिए आधुनिक स्टैंड। रिसर्च के छात्र-छात्राएँ भी थी। साक्षात्कार शुरू हुआ। छात्रों ने अपने रिसर्च पेपर रखे। बातचीत और परस्पर संवाद हुआ। यह जानकार थोड़ा दुख हुआ कि रिसर्च के छात्र भी मूल पुस्तकें नहीं पढ़ रहे और अपने रिसर्च से संबंधित किताबें भी नहीं ख़रीद रहे। मैंने उन्हें डाँटा भी कि यूजीसी आपको रिसर्च के लिए पैसे दे रही है और किताबों की ख़रीदारी के लिए भी, तब भी किताब नहीं ख़रीदना तो एक तरह का अपराध है। खैर। मुझे एम ए की कक्षाओं में वहाँ के शिक्षक ले गये। मुझे आश्चर्य लगा कि पूरी कक्षा छात्रों से भरी थी। उन्हें संबोधित करते हुए बहुत अच्छा लगा। बहुत दिनों बाद, मैं एक क्लास रूम में था और मुझे आनंद आ रहा था। वहाँ से वापस अध्यक्ष के कमरे में पहुँचा। शिक्षकों की बातचीत से पता चला कि सत्रह वर्ष सेवा के बाद भी उन्हें कोई प्रमोशन नहीं मिला है। दो वर्ष से कोई रेगुलर कुलपति नहीं हैं। कुलपति आते जाते रहते हैं। सरकार और आम लोगों को इस पर चिंतित होना चाहिए।

 

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डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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