बाबा विजयेन्द्र
हर तरफ विवाद है। हम और हमारा देश विवादों से घिरा है। संवाद का समय अब किसी के पास नहीं है। बेलगाम उपभोक्तावाद के इस दौर में मानवता के कल्याण के लिए जितने वाद पिछली सदी में जन्म लिए थे वे सारे आज निष्प्रभावी हो चुके हैं। आशा की कोई किरण फिलहाल नजर नही आ रही है। जनता ही जो कुछ कर रही है, पर सारी बदलावकारी शक्तियाँ पीछे नजर आ रही हैं?
संगठित प्रतिरोध अभी भी हो रहे हैं, पर ये संगठित प्रतिरोध के अपने कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है। देश और दुनिया को कहाँ जाना है इसकी कोई दिशा नजर नहीं आती। दिशाहीन दुनिया में हम जीने को अभिशप्त हैं। मानवता को त्राण के लिए कोई मसीहाई करेक्टर भी सामने नहीं है। समाज की सज्जन शक्तियां खामोश हैं। नक्कारखाने में तूती ही सही पर वह भी खामोश है? कहीं बम का धमाका है तो कहीं बयानों का धमाका है। सारी क़बायदें युद्ध और युद्धोन्माद के लिए ही हैं?
तीसरे विश्व युद्ध का आगाज हो चुका है। मानवता के करुण पुकार अनसुनी हो रही है। स्त्रियां, बच्चे, बूढ़े सभी युद्ध की विभीषिका के शिकार हैं। मन व्यथित है कि हमारी निजी भूमिका क्या हो और सामूहिक भूमिका क्या हो? कुछ समूह बनते भी हैं तो सबके अपने-अपने आग्रह और दुराग्रह हैं। असहमति के साथ हम चलने को तैयार हैं पर दुराग्रह का क्या किया जाय?
मुझे लगता है कि संवाद प्रक्रिया हर जगह शुरू हो। यह बंद कमरे के बाहर हो तो और अच्छा है। अमन चैन के खिलाफ खड़ा होते नफरती समाज को धिक्कारना होगा। इसे दुत्कारना ही होगा। जो जहाँ हैं वहीं से बात शुरू करनी होगी। तमाशबीन होना दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इसे अकादमिक विषय बनाने के बजाय अस्तित्व का विषय बनाना चाहिए।
भारत बड़ी जिम्मेवारी निभा सकता था पर भारत अपनी ही विसंगतियों की गिरफ्त में फड़फड़ा रहा है। युद्ध जमीन पर बाद में घटित होता है और मन में पहले ही घटित हो जाता है। युद्ध, उन्माद की अभिव्यक्ति है। उपभोक्तावाद हर स्तर पर हमें हिंसक बना रहा है। छोटे-छोटे बच्चे अब हिंसक हो जा रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में आये दिन छोटे-छोटे बच्चे हथियार लहराते हैं और रक्तपात भी करते हैं। हर कोई एक दूसरे से नफ़रत और अविश्वास से भरे हैं। विडिओ गेम का युद्ध एक मानस को जन्म दे रहा है। जीवन के जद्दोजहद अब युद्ध का रूप ले रहे हैं। चारो तरफ यहां भी अराजकता और युद्ध का ही माहौल है?
यह उत्सवधर्मी है। देश में होने वाले पर्व त्योहार भाईचारा और सामाजिक समरसता के आधार को पुख़्ता करते थे। अब पर्व और त्योहार के आते ही हम असुरक्षा से घिर जाते है। यही सोचते हैं कि किसी तरह पर्व समाप्त हो जाय?
पिछले कई वर्षो से यही वातावरण दिख रहा है। शस्त्र पूजन हो रहे हैं पर मानवता का शास्त्र कैसा होगा, इसकी तलाश बंद है। हमें नई सभ्यता की बहस को आगे करना ही होगा। आख़िर जीने लायक सभ्यता कैसी होगी? शैतानी सभ्यता को खत्म करना होगा। यह तलवार के बल पर नही बल्कि विचार के बल पर संभव होगा।